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________________ (१६२) अग्रभाग पर स्थिति करतां विपत्तिरूप वाघण दोडती पण मारो पराभव करवा समर्थ थई शकती नथी.८ तनया यस्य भूयांसः स स्यात्प्रायेण निर्धनः । धनं यस्य न तस्यामी धिम् विधे तव चेष्टितम् ९ भावार्थ-जेने घणा पुत्रो होय-ते बहुधा निर्धन होय छे, अने जे धनवंत होय, तेने पुत्रो होता नथी. अरे ! विधाता ! तने धिक्कार थाओ. ९ तत्पालौ केनचिन्नाना-दर्शनद्रुममध्यगः ॥ भाग्येन लक्ष्यते जैनो धर्मः कल्पद्रुमोपमः ॥१०॥ __ भावार्थ-दयारूप नदीनी पाळपर विविध दर्शनोंना मध्यमां आवेल कल्पवृक्षसमान जैन धर्म कोई महाभाग्ययोगेज लक्ष्यमां आवी शके छे. १० त्रिदोषगहनस्यास्य प्रतीकारो विकारिणः । को नाम सुश्रुतादन्यो यौवनस्यामयस्य च ॥११॥ भावार्थ-त्रिदोषथी गहन अने विकारमय एवा यौवन तथा रोगनो सुश्रुत ( वैद्य) विना अन्य शुं प्रतीकार ( इलाज ) होइ शके ? ११
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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