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________________ ( १२६ ) गणिकाः कणिकामात्रसुखसंपत्तिहेतवः । सर्वतः पर्वतपायं दुःखं ददति रागिणाम् ॥९॥ ___ भावार्थ--गणिकाओ एक लेशमात्र सुखनी हेतुभूत छे, पण रागी जनोने ते सर्वत्र पर्वत जेटलं दुःख तो अवश्य आपेज छे. ९ गुणाः सर्वत्र पूज्यंते पितृवंशो निरर्थकः। वासुदेवं नमस्यंति वसुदेवं न ते जनाः ॥१०॥ ___ भावार्थ-गुणोज सर्वत्र पूजाय छे, पण पितानो वंश निरर्थक छे. जुओ, जे लोको वासुदेवने नमे छे, तेओ वसुदेवने नमता नहता. १० गुणिनोऽपि निरीक्ष्यते केऽपि केपि नराः क्वचित्। गुणानुरागिणः किंतु दुर्लभास्त्रिजगत्यपि ॥११॥ __ भावार्थ-कोइ कोइ गुणी जनो हजी क्यांक जोवामां आवे छे, पण गुणानुरागी जनो तो त्रणे जगतमां पण दुर्लभ (प्रायविरलाज ) हशे. ११ गुणो भूषयते रूपं शीलं भूषयते कुलम् । सिद्धिर्भूषयते विद्यां भोगो भूषयते धनम् ॥१२॥
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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