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वीतरागस्तोत्र की रचना की जिसमें २० प्रकाश हैं और प्रत्येक में ८ से कम श्लोक नहीं हैं । आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि ने दो राजवी को प्रतिबोध कर के सारे गुजरात में अहिंसा धर्म की बहुमूल्य प्रतिष्ठा की । भारत देश में आज सबसे अधिक अहिंसक शान्तियिप्र प्रजा का निवास कहीं भी हो तो वह गुजरात में, जिसके लिये श्रा हेमचन्द्रसूरि का सारे गुजरात का समाज अवश्य ऋणो है । ऐसे महान् प्रभावक आचार्य वि. सं. १२२९ में स्वर्ग पधारे । सिद्ध हेमशद्वानुशासन आदि अनेक ग्रन्थरत्न आज इन महापुरुष की उच्चतम प्रतिभा में साक्षी दे रहे हैं ।
३ - स्याद्वादरहस्य के कर्त्ता उपाध्याय यशोविजय :विक्रम की १७ वीं शताब्दी में गुजरात में पाटण (सिद्धपुर) के नजदीक में एक छोटा सा देहाँत कनोडु श्री यशोविजय के जन्म से धन्य बन गया । श्रीयशोविजय महाराज का जन्म दिन निश्चितरूप से बताने के लिये कोई आधार न होने पर भी इतना जरूर कह सकते हैं कि उनका जन्म वि. सं. १६७५ से १६८० के बीच में हुआ होगा । क्योंकि वि. सं. १६८८ में उनकी दीक्षा निश्चित है और ८ वर्ष से कम उम्र वाले को जैनशासन में उत्सर्ग मार्ग से दीक्षा दी नहीं जाती, तथा उन्होंने बाल्यवय में ही दोक्षा ली हैं इस से दीक्षा के समय ८ से १३ वर्ष की उम्र हो तो वह अनुमान ठीक हो सकता है । उनके पिता का नाम नारायण था और माता का सोभागदे । अपना नाम था जसवन्त ।
बाल्यवय में भी जसवन्त की तीक्ष्ण बुद्धि और दयालुता - उदारता आदि को देख कर लोगों को यह विश्वास पैदा हुआ था कि जरूर एक दिन यह बालक बड़ा पंडित और महात्मा बनेगा । वह दिन भी दूरे न था कि जसवन्त को सद्गुरुदेव पू. नयविजय महाराज का परिचय हुआ । उनकी सौम्यमुखाकृति और निस्पृहतापूर्ण मुनिचर्या से जसवन्त प्रभावित हुआ । श्री नयविजय महाराज ने भी जौहरी की तरह इस बाल रत्न की परीक्षा कर ली और वह दिन आ गया जब कि माता और पिता ने हर्षाश्रुपूर्ण आशिष से जसवन्त की दीक्षा के लिए शरणाइयों का मंगल ध्वनि बजाना शुरू कर दिया । वि. सं. १६८८ में बालक जसवन्त ने अणहिलपुर पाटण में अपने जीवन को पांच महाव्रतों के अंगीकारपूर्वक संयमित बना दिया | आजीवन सद्गुरु के चरणोपासक बन गये । केवल स्वयं नहीं किन्तु अपना लघु बन्धु पद्मसिंह भी साथ ही दीक्षा लेकर अपने बडे भाइ का पदानुसारी बना । दोक्षा के समय नामपरिवर्तन से जसवन्त जशविजय बना और पद्मसिंह पद्मविजय ।
तीक्ष्ण बुद्धि वाले श्री जसविजय महाराज ने बाल्यवय में ही अर्थगम्भीर जैनशास्त्रों के अध्ययन में अपने को तल्लोन बना दिया । किन्तु जैन शास्त्रों में पूर्वपक्ष के रूप में