________________
सम्पादकीय वक्तव्य डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव के शोध-ग्रन्थ 'वसुदेवहिण्डी: भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा' को संस्थान के गौरवशाली प्रकाशनों में सम्मिलित कर इसे सुधी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें व्यक्तिगत हर्ष एवं गौरव का अनुभव हो रहा है । डॉ. सूरिदेव हिन्दी, संस्कृत तथा प्राकृत-जैनशास्त्र के समान रूप से अधिकारी एवं लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् हैं तथा इन विषयों में लेखन-सम्पादन का इन्हें गम्भीर एवं विस्तृत अनुभव प्राप्त है। इनका प्रस्तुत शोध-अध्ययन प्राकृत-कथासाहित्य के शोधकों की गवेषणा-दृष्टि से अबतक प्रायः ओझल और अल्पज्ञात अनमोल निधि को सांगोपांग उद्घाटित करने का एक श्लाघनीय एवं सार्थक सत्प्रयास है।
आचार्य संघदासगणी द्वारा आर्ष प्राकृत-भाषा में निबद्ध 'वसुदेवहिण्डी' का प्राच्य कथा-साहित्य में विशिष्ट स्थान है । यह गुणान्य द्वारा पैशाची में निबद्ध 'बृहत्कथा' का जैन रूपान्तर है, जो बुधस्वामी कृत 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह', सोमदेव कृत 'कथासरित्सागर' तथा क्षेमेन्द्र कृत 'बृहत्कथामंजरी के साथ समानान्तर अध्ययन से गुणाढ्य के मूलकथा के निकटतम प्रमाणित होता है। भारतीय कथा-साहित्य में दृष्टान्तों का प्रयोग बहुलता से हुआ है। 'वसुदेवहिण्डी' में भी इस दृष्टान्त-शैली का हृदयावर्जक प्रयोग मिलता है । इस सन्दर्भ की ग्रन्थकार द्वारा की गई गम्भीर गवेषणा विश्वसनीय होने के साथ ही अतिशय रोचक एवं विस्मयकारी है। 'वसुदेवहिण्डी' में कृष्णकथा, रामकथा तथा अन्य पौराणिक कथाएँ प्रसंगवश आई हैं। शोधश्रमी लेखक ने प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन और ब्राह्मण पुराण-कथाओं का तुलनात्मक मूल्यांकन बहुत सटीक ढंग से किया है। इसके अतिरिक्त सृष्टि-प्रक्रिया, वेदोत्पत्ति, गणिका-उत्पत्ति आदि प्रसंगों का शोधानुशीलन और मूल्यांकन प्रस्तुत ग्रन्थ का उल्लेखनीय वैशिष्ट्य निरूपित करता है । भारतीय पारम्परिक विद्याएँ और कलाएँ 'वसुदेवहिण्डी' में प्रायोगिक रूप से वर्णित हुई हैं । इन प्रयोगों के आधार पर ज्योतिष, आयुर्वेद, धनुर्वेद, वास्तुशास्त्र, कामशास्त्र एवं ललित कलाओं के सम्बन्ध में प्राप्त बहुमूल्य सामग्री का भी शोधगर्भ अध्ययन ग्रन्थकार ने बड़े ही वैदुष्यपूर्ण एवं प्रामाणिक ढंग से उपन्यस्त किया है।
'वसुदेवहिण्डी' वस्तुतः भारतीय जीवन और संस्कृति का महाकोष है। इसमें लोकजीवन की सुरम्य झाँकियाँ दृष्टिगत होती हैं । अनेक नगरों, जनपदों, देशों, पहाड़ों और नदियों का अपूर्व भौगोलिक चित्रण इसमें मिलता है । तत्कालीन धार्मिक स्थिति को रेखांकित करनेवाले आचारों और दार्शनिक मतों की भी चर्चा यहाँ उपस्थापित है। उस युग की राजनीतिक परिस्थितियों, राज-परिवार की जीवन-पद्धतियों एवं अर्थ-व्यवस्था का भी व्यापक विवेचन इस ग्रन्थ में सुलभ हुआ है। शोधमनीषी लेखक ने अपने इस ग्रन्थ में भारतीय संस्कृति के विविध आयामों का पुंखानुपुंख विशद विवेचन प्रस्तुत किया है । कृतविद्य लेखक द्वारा सम्पन्न वसुदेवहिण्डी' के भाषिक वैभव एवं साहित्यिक सौन्दर्य का पाण्डित्यपूर्ण परिशीलन भी अद्वितीय है । निस्सन्देह, यह कहना अत्युक्ति नहीं कि प्रस्तुत शोध-महार्घ ग्रन्थ में पहली बार उपस्थापित 'वसुदेवहिण्डी' का महनीय शोधालोचन प्राकृत-भाषा और साहित्य के शोध-जगत् में सर्वोत्तम स्थान आयत्त करता है।
इस शोधग्रन्थ के कलावरेण्य मुद्रण, प्रस्तवन और परिवेषण के लिए तारा प्रिण्टिंग वर्क्स के अधिस्वामी रविप्रकाश पण्ड्या संस्थान की ओर से हार्दिक धन्यवाद के पात्र हैं। बासोकुण्ड, मुजफ्फरपुर
युगलकिशोर मिश्र ३१ दिसम्बर, १९९३ ई.
सम्पादन-प्रमुख