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५९ वसुदेव और वेगवती दोनों आपस में बतचीत का सिलसिला बढ़ाते हुए एक दूसरे को प्रसन्न कर रहे थे, तभी उन्हें एक अशोकवृक्ष के नीचे नागपाश से बँधी कन्या दिखाई पड़ी। उसे देखकर वेगवती वसुदेव से बोली : “यह बालिका उत्तरश्रेणी में स्थित गगनवल्लभ नगर के राजा चन्द्राभ की बेटी रानी मेनका की आत्मजा बालचन्द्रा है । यह मेरी बाल्यसखी है। विद्या की साधना से भ्रष्ट हो जाने के कारण यह नागपाश में बँध गई है और इस प्रकार इसका प्राण संकट में पड़ गया है । इसलिए आप इसे जीवनदान देने की कृपा करें।"
वसुदेव ने वेगवती की बात मानकर ज्योंही उस कन्या को पाशमुक्त किया, त्योंही वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। वसुदेव ने जब उसके मुँह पर पानी के छीटे दिये, तब वह प्रकृतिस्थ हुई, और दक्षिण पवन के स्पर्श से खिली वसन्त-नलिनी के समान उसकी शोभा लौट आई। तब उस बालिका बालचन्द्रा ने वसुदेव से निवेदन किया : “आर्यपुत्र ! मेरे कुल में विशेषत: कष्टसाध्य विघ्न करनेवाली महाविद्याएँ हैं। आपकी कृपा से मेरी विद्या सिद्ध हो गई। प्राण-संकट की स्थिति में मुझे जीवनदान मिला।” तब वसुदेव ने उसे आश्वस्त करते हुए उससे विशेष कष्ट से विद्याओं के सिद्ध होने का कारण पूछा। तब उसने अपने निकायवृद्धों से सुनी हुई कथा को दुहराते हुए कहा कि हमारे कुल में नागराज धरण के शापदोष से लड़कियों को महाविद्याएँ कष्ट से सिद्ध होती हैं। बालचन्द्रा ने वसुदेव से पुन: कहा कि उसके वंश में नयनचन्द्र नाम के राजा हुए थे। उनकी रानी मदनवेगा से केतुमती नाम की पुत्री उत्पन्न हुई। भारत-विजय के क्रम में पुरुषोत्तम वासुदेव (वसुदेवपुत्र कृष्ण) ने दयाद्रवित होकर विद्या के पुरश्चरण से खिन्न मदनवेगा को पाश से मुक्त कर दिया, तब अपने को कृतार्थ मानती हुई वह उन्हीं की चरणसेविका हो गई। उसी प्रकार, वह भी अपने माता-पिता से अनुज्ञात होकर उनकी सेविका होना चाहेगी। इसीलिए उसने वसुदेव से विदा माँगी और उनसे वर माँगने का भी आग्रह किया।
तब वसुदेव ने बालचन्द्रा से, उसकी शरीर-रक्षा के निमित्त कष्ट उठानेवाली वेगवती के लिए विद्यासिद्धि का वर माँगा । बालचन्द्रा ने विनयपूर्वक सिर नवाकर वेगवती को विद्या देना स्वीकार कर लिया। उसके बाद उसने वसुदेव की प्रदक्षिणा की और वेगवती को साथ लेकर आकाश में उड़ गई (सोलहवाँ बालचन्द्रा-लम्भ)।
बालचन्द्रा और वेगवती के चले जाने पर वसुदेव दक्षिण की ओर चल पड़े। बहुत दूर निकल जाने पर उन्हें एक आश्रम दिखाई पड़ा। वहाँ पहुँचते ही ऋषियों ने उनका स्वागत और अभिनन्दन किया। वहाँ उन्होंने ऋषियों से धर्मोपदेश करने का अनुरोध किया। तब उन ऋषियों ने शैवाली (गौतमस्वामी द्वारा प्रतिबोधित एक तापस) द्वारा कथित धर्म का प्रवचन किया। तदनन्तर, उन्होंने वसुदेव को श्रावस्ती नगरी के राजा एणीपुत्र की कथा सुनाई।
एणीपुत्र की राजधानी का वासी कामदेव सेठ की पुत्री बन्धुमती थी। वह सर्वांगसुन्दरी और सभी कलाओं में निपुण थी। उसके रूप से विस्मित अनेक महाधनी पुरुष उसकी याचना करते थे, किन्तु सेठ किसी को भी अपनी लड़की नहीं देता था। सेठ का कहना था कि मन्दिर में प्रतिष्ठित उसके पितामह कामदेव की प्रतिमा जिस वर के लिए सकी देने का निर्देश करेगी, उसी वर को वह अपनी लड़की देगा।
भिसकि....