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________________ ४५ वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप वसुदेव सीधी राह छोड़कर दूर उत्तर दिशा की ओर चलते गये। हिमवन्त पर्वत को देखते हुए पूर्वदेश जाने की इच्छा से वह कुंजरावर्त अटवी में प्रविष्ट हुए। वहाँ एक सरोवर में उन्हें गन्धहस्ती से लड़ना पड़ा। जब हाथी उनका वशंवद हो गया, तब वह उसपर सवार होकर उसे घुमाने लगे। तभी आकाशस्थ दो पुरुषों ने उनकी भुजाओं को एक साथ पकड़कर उठा लिया और उन्हें आकाशमार्ग से ले चले। आकाशचारी पुरुष वसुदेव को एक पहाड़ पर ले गये और उन्होंने उन्होंने वहाँ उन्हें उद्यान में रख दिया। फिर, उन दोनों ने पवनवेग और अर्चिमाली के रूप में अपना परिचय देते हुए वसुदेव को प्रणाम किया। इसके बाद वे चले गये। उसी समय विद्याधरों के राजा अशनिवेग की पुत्री श्यामली की बाह्य परिचारिका मत्तकोकिला ने आकर वसुदेव को सूचना दी कि राजा अपनी पुत्री का विवाह उनके साथ करना चाहते हैं। सूचनानुसार राजकन्या श्यामली के साथ वसुदेव का विवाह हो जाता है। श्यामली के साथ वसुदेव जब गर्भगृह में थे, तभी एकान्त में श्यामली ने उनसे वर माँगा कि आपसे मेरा कभी वियोग न हो । और तब, उसने वसुदेव से वर माँगने का कारण बताते हुए कहा : “मेरे पिता दो भाई हैं-ज्वलनवेग और अशनिवेग । (बड़े चाचा) ज्वलनवेग की पत्नी (बड़ी चाची) का नाम विमलाभा है और मेरे पिता अशनिवेग की पत्नी (अर्थात् मेरी माँ) का नाम सुप्रभा है । ज्वलनवेग साधु के उपदेश सुनकर कामभोग से विरक्त हो गये और मेरे पिता से उन्होंने प्रज्ञप्तिविद्या या राज्य दोनों में कोई एक ग्रहण करने को कहा; किन्तु पिता ने अनिच्छा प्रकट की। तब, ज्वलनवेग ने अपने पुत्र (मेरे चचेरे भाई अंगारक) को, उसकी माँ (विमलाभा) के परामर्शानुसार, प्रज्ञप्तिविद्या दी और मेरे पिता अशनिवेग को, राज्य स्वीकार करने के लिए विवश होना पड़ा। मेरे पिता के राजा होने के बावजूद, मेरी बड़ी चाची प्रजाओं से कर वसूलती रही। मेरे पिता (अशनिवेग) ने जब मना किया, तब बड़ी चाची ने साफ कह दिया कि पुत्र (अंगारक) की माता होने के कारण प्रजाओं से कर लेना मेरे लिए उचित है । अन्त में, अंगारक ने मेरे पिता को पराजित करके स्वयं अपने को राजा घोषित कर दिया और मुझे उसने निर्बाध रूप से भाई के ऐश्वर्य का उपभोग करने की अनुमति दे दी। मैं अंगारक के आश्रय में रहने लगी। एक दिन अंगारक से आज्ञा लेकर परिजन-सहित मैं अपने पराजित पिता को देखने अष्टापद पर्वत पर गई । वहाँ अंगिरा नामक साधु ने प्रव्रज्या के लिए उत्सुक मेरे पिता से कहा कि तुम्हारा प्रव्रज्या-काल अभी नहीं आया है। तुम्हें पुनः राज्यश्री प्राप्त होगी। पिता ने जब पूछा कि राज्यप्राप्ति किस प्रकार होगी, तब श्रमण मुनि ने मेरी ओर संकेत करते हुए पिता से बताया कि तुम्हारी पुत्री श्यामली का जो स्वामी होगा, उसी से तुम्हें राज्यश्री पुनः प्राप्त होगी। इस (पुत्री) का स्वामी अर्द्धभरतेश्वर (कृष्ण) का पिता होगा। पिता ने जब पूछा कि उसकी पहचान कैसे होगी, तब साधु ने बताया कि “कुंजरावर्त अटवी में जो गन्धहस्ती के साथ युद्ध करेगा, उसे ही अर्द्धभरतेश्वर का पिता जानना।" मेरे पिता के आदेश से पवनवेग और अर्चिमाली नाम के दो आदमी कुंजरावर्त में जाकर निगरानी करते रहे। इसी क्रम में आपके दर्शन हुए और मेरे पिता के दोनों आदमी हाथी की पीठ पर से आपको उठाकर यहाँ ले आये। अंगारक को यह बात मालूम हो गई है। वह बड़ा दुष्ट है, आपको असावधान पाकर कहीं मार न डाले। हम विद्याधरों के लिए नागराज ने सिद्धान्त बना
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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