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वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप एक दिन वसुदेव ने बड़े भाई की धाई से, अंगराग-द्रव्य (उबटन) पीसती हुई गन्धद्रव्य की प्रभारिणी कुब्जा के बारे में पूछा : “यह किसके लिए विलेपन तैयार कर रही है ?” “राजा (बड़े भाई समुद्रविजय) के लिए।" धाई ने उत्तर दिया। वसुदेव ने कहा : “मेरे लिए क्यों नहीं ?" वह बोली : “तुमने अपराध किया है, इसलिए तुम्हें विशिष्ट वस्त्राभरण और विलेपन नहीं मिलेगा।" इसके बाद धाई वसुदेव को रोकती रही, फिर भी उन्होंने जबरदस्ती उबटन ले लिया। तब वह (धाई) रुष्ट होकर बोली : “इन्हीं आचरणों से राजा ने तुम्हारा कहीं बाहर आना-जाना रोक दिया है। फिर भी, तुम अपनी उद्दण्डता से बाज नहीं आते।"
वसुदेवने धाई से यह पता लगाने को कहा कि राजा ने किस अपराध से उन्हें रोक रखा है । परन्तु, राजा के भय से वह धाई असलियत कह नहीं पाती थी । वसुदेव उसके पीछे पड़ गये । उसे एक अंगूठी देकर अनुनय-विनय किया, तब वह बोली : “राजा को नगरपालों ने गुप्त रूप से सूचित किया है कि कुमार वसुदेव शरच्चन्द्र की भाँति जन-जन की आँखों को सुख देनेवाले शुद्धचरित्र व्यक्ति हैं । किन्तु, वह इतने रूपवान् हैं कि जिधर-जिधर जाते हैं, उधर-उधर तरुणियाँ उनके साथ, उनके कामों का अनुकरण करती हुई, घूमती रहती हैं और वे अपनी खिड़कियों और दरवाजों पर मूरत बनी यक्षिणी की तरह खड़ी-खड़ी दिन बिता देती हैं, इसलिए कि वसुदेव जब लौटेंगे, तब उन्हें वे देख सकेंगी। यहाँतक कि वे स्वप्न में भी वसुदेव का नाम लेकर बड़बड़ाती हैं और बाजार में शाक-भाजी, फल आदि खरीदते समय विक्रेताओं से भ्रमवश पूछ बैठती हैं कि 'वसुदेव कितने में देते हो?' कुमार को एकटक देखती स्त्रियों से जब उनके रोते बच्चों के बारे में कहा जाता है कि 'वत्स छूट गया है, तब वे मति-विपर्ययवश अपने बच्चों को ही गाय का बछड़ा समझ रस्सी से बाँधने लगती हैं। इस प्रकार, सब लोग पागल हो उठे हैं। घर के सारे कामकाज छोड़ बैठे हैं । अतिथि और देवपूजा में भी उनका आग्रह शिथिल पड़ गया है । इसलिए नगरपालों ने राजा को तुम्हारी उद्यानयात्रा पर प्रतिबन्ध लगा देने का परामर्श दिया है। राजा ने नगरपालों को तुम्हें रोक रखने का आदेश दिया है और परिजनों को इस बात की गोपनीयता बरतने के निमित्त आगाह किया है। मैंने भी इस परमार्थ को गोपनीय रखने की शपथ खाई है।"
धाई की यह बात सुनकर वसुदेव ने सोचा : “यदि मैं असावधानी से बाहर निकला होता, तो बन्दी बना लिया गया होता। अथवा, अभी मैं जिस स्थिति में रह रहा हूँ, वह भी तो बन्धन ही है। इसलिए, इस घर में रहना मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं है।" इस प्रकार सोचकर, वसुदेव ने रूप
और आवाज को बदल देनेवाली गुटिकाएँ तैयार करके अपने पास रख ली और 'वल्लभ' नामक सेवक के साथ सन्ध्या के समय नगर से बाहर निकल पड़े।
सुनसान श्मशान के निकट आने पर उन्होंने वल्लभ से कहा : "लकड़ियाँ ले आओ। मैं शरीर-त्याग करूँगा।" वल्लभ ने लकड़ी चुनकर चिता रच दी। तब वसुदेव ने उससे कहा : “जल्दी जाओ, मेरे बिछावन से रत्नपेटिका उठा लाओ। दान करने के बाद अग्नि में प्रवेश करूँगा।" इसपर वल्लभ ने उनसे कहा : “यदि आपका यही निश्चय है, तो मैं भी आपका अनुसरण करूँगा।” तब, वसुदेव ने कहा : “तुम्हारी जो इच्छा होगी, वही करना। यह रहस्य प्रकट न होने पाये, इसका खयाल रखते हुए तुम शीघ्र लौटकर आओ।” 'यथाज्ञा' कहकर वल्लभ चला गया।
इधर वसुदेव ने, एक अनाथ मृतक को चिता पर रखकर उसे (चिता को) प्रज्वलित कर दिया। फिर, श्मशान-भूमि पर पड़े, किसी मृत सधवा स्त्री के अलक्तक रस से एक क्षमापन-पत्र