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वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप पूर्वोक्त (पूर्वभव में) साधारण और बादर वनस्पति-जीव में उपपन्न विजयनन्दा के दस पुत्रों में शेष एक पुत्र (धनदेव) गत्यन्तर प्राप्त करके मगध-जनपद के पलाशपुर ग्राम में स्कन्दिल नामक ब्राह्मण की सोमिला नाम की पत्नी से नन्दिसेन नामक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। बचपन में ही उसके माता-पिता मर गये । 'यह पुत्र अशोभन है' यह कहकर लोगों ने भी उसका परित्याग कर दिया। फलत: वह भिक्षावृत्ति से अपना जीवन बिताता रहा।
एक दिन उसके मामा ने उसे अपने पास बुला लिया। मामा के यथाक्रम उत्पन्न तीन कन्याएँ थीं। मामा ने उस नन्दिसेन से कहा : “तुम यहाँ विश्वस्त होकर रहो। तुम्हें मैं अपनी पहली पुत्री दे दूंगा। मेरी गौओं की सेवा-शुश्रूषा करते रहो।” जब मामा की पहली पुत्री जवान हो गई और उसे पता चल गया कि दरिद्र नन्दिसेन को वह दी जायगी, तब उसने साफ इनकार कर दिया : “यदि इस दरिद्र से मेरा विवाह होगा, तो मैं आत्महत्या कर लूँगी।” नन्दिसेन ने जब यह सुना, तब उसने इसे मामा से कहा । मामा ने उसे धीरज बँधाया : “अगर पहली पुत्री तैयार नहीं होगी, तो दूसरी दे दूंगा।" लेकिन, दूसरी और इसी प्रकार तीसरी पुत्री ने भी नन्दिसेन के साथ विवाह करने से इनकार कर दिया। मामा ने उसे फिर आश्वस्त किया : “यदि मेरी तीनों पुत्रियाँ तुम्हें नहीं चाहतीं, तो मैं कहीं अन्यत्र तुम्हारा विशिष्टतर सम्बन्ध करूँगा। तुम निराश मत हो।”
__ तब, नन्दिसेन ने सोचा : जब मामा की लड़कियों ने मुझे नहीं चाहा, तब पराई लड़कियाँ मुझे क्यों चाहेंगी। इस प्रकार, परम मन:सन्ताप के साथ वह मामा के गाँव से निकल पड़ा और रत्नपुर चला गया। वहाँ वसन्त ऋतु में, उपवनों में इच्छित युवतियों के साथ रमण करते तरुणों को देखकर वह अपने दुर्भाग्यपूर्ण जीवन को कोसने लगा और इसी मन:स्थिति में कुछ निश्चय के साथ वह लता, पेड़ और झाड़ियों से सघन एक उपवन में चला गया। उस उपवन के एक लतागृह में सुस्थित नाम के साधु प्रशस्त ध्यान में बैठे थे। नन्दिसेन ने उन्हें नहीं देखा और उन्हीं के निकट, मरने की इच्छा से अपने गले में लत्तर की फँसरी डालने लगा। दयालु साधु ने उसे रोका : “नन्दिसेन ! दुस्साहस मत करो।” नन्दिसेन के मन में शंका हुई कि गाँव से कोई मेरे पीछे-पीछे आया है और वही रोक रहा है। पर, कहीं किसी को न देखकर फिर गले में फँसरी डालने लगा। उसे फिर साधु ने रोका। नन्दिसेन, जिधर से आवाज आ रही थी, उधर ही गया। मुनि को देखकर उसने अभिवादन किया और उनके निकट बैठ गया।
__ सुस्थित साधु ने समझाया : "श्रावक ! अकरणीय कार्य से मरनेवाला परलोक में भी सुखी नहीं होता।" नन्दिसेन प्रश्नात्मक स्वर में बोला : “परलोक है, इसका विश्वास कैसे किया जा सकता है ? अथवा, धर्म करने से सुख मिलता है, इसका क्या प्रमाण है ?" तब अवधिज्ञान-सम्पन्न साधु ने उसे परलोक के अस्तित्व और धर्मकार्य से सुखप्राप्ति में विश्वास उत्पन्न करानेवाली कथा सुनाई।
सुस्थित साधु से प्रबोधित नन्दिसेन तपस्या और जनसेवा में लीन रहकर सम्पूर्ण भारतवर्ष में, महातपस्वी के रूप में प्रसिद्ध हो गया। देवराज इन्द्र ने भी देवसभा में अंजलि बाँधकर उसका गुण-कीर्तन किया। देवता बहुत प्रयास करके भी उसे व्यावृत्ति (सेवा)-धर्म से विचलित नहीं कर सके। फिर भी, दो देवों ने इन्द्र के कथन के प्रति अश्रद्धाभाव रखते हुए उसकी (नन्दिसेन की) परीक्षा ली। दोनों ने साधु का रूप धारण किया, जिनमें एक, सनिवेश के बाहर रोगी होकर पड़