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वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व
'जंबुकाहरणं' (पृ.१६८), 'सुमित्तरण्णो आहरणं' (पृ. २५८); 'अदिण्णादाणदोसे मेरुस्स गुणे य जिणदासस्स आहरणं' (पृ. २९५ ); 'मेहुणस्स दोसे पूसदेवस्स गुणे य जिणवालियस्स आहरणं' (पृ.२९६) और 'परिग्गहगुण-दोसे चारुणंदि- फग्गुणंदि - आहरणं' (पृ.२९७) । इसी प्रकार, 'उदाहरण' - संज्ञक कथाओं में यथानिर्दिष्ट तीन कथाएँ परिगणनीय हैं : 'परदारदोसे वासवोदाहरणं' (पृ.२९२), 'पाणाइवायदोसे मम्मण- जमपासोदाहरणं' (पृ. २९४) तथा 'अलियवयणगुणदोसे धारणरेवइडयाहरणं' (पृ. २९५)।
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कहना न होगा कि 'आहरण' और 'उदाहरण' संज्ञक कथाएँ प्राय: एक ही कोटि की हैं। क्योंकि, अन्तः साक्ष्य से भी यह सिद्ध होता है कि कथाकार उक्त दोनों कथा- विधाओं को एक ही श्रेणी की मानते हैं। तभी तो उन्होंने अदिण्णादाण विषयक मेरु की कथा को 'आहरण' की संज्ञा दी है। पुन: उसी क्रम में अदिण्णादाण - विषयक दूसरी जिनदास की कथा को 'उदाहरण' कहा है : 'अहवा इमं अदिण्णादाणे पसत्थं बीयं उदाहरणं' (२९५.२३) । 'आहरण' और 'उदाहरण' -संज्ञक कथाएँ भी नीति-दृष्टान्त को दरसाने के लिए परिगुम्फित की गई हैं। प्रथम वसुदत्ता के 'आहरण' में, सास-ससुर का कहना न मानकर, स्वच्छन्दभाव से, अपने बच्चों के साथ उज्जयिनी के लिए प्रस्थित वसुदत्ता के जीवन के कदर्थित होने की कथा का लोमहर्षक वर्णन किया गया है।
द्वितीय महिष के आहरण में एक दुष्ट भैंसे की कथा कही गई है। एक जंगल में एक ही जलागार था । वहाँ विभिन्न प्यासे चौपाये जानवर आकर पानी पीते और अपनी प्यास बुझाते थे। लेकिन, दुष्ट भैंसा जब आता था, तब वह अपने सींगों द्वारा जलतल से कीचड़ निकालकर पानी को गँदला कर देता था । फलतः, जलाशय का पानी स्वयं उसके लिए और दूसरे के लिए भी पीने योग्य नहीं रह जाता था । यहाँ इस कथा को दृष्टान्त से जोड़ते हुए कथाकार ने प्रतीक-निरूपण किया है कि जंगल संसार का प्रतीक है और सरोवर का जल आचार्य का । प्यासे चौपाये जानवर धर्म सुनने के अभिलाषी प्राणी के प्रतीक हैं । और भैंसा धर्म में बाधा पहुँचानेवाले दुष्ट का प्रतीक है। इस प्रकार, यह कथा दृष्टान् का भी प्रतिरूप है।
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'वायसाहरण' तथा 'जम्बुकाहरण' नाम की तीसरी और चौथी 'आहरण'- कथाएँ परलोकसिद्धि प्रसंग में कही गई हैं । 'वायसाहरण' की कथावस्तु है कि एक बूढ़ा हाथी ग्रीष्मकाल में किसी पहाड़ी नदी में उतरते समय संकीर्ण और ऊबड़-खाबड़ तट में फँस गया । शरीर के भारीपन तथा दुर्बलता के कारण वह सँकरे तट से बाहर नहीं निकल सका और वहीं मर गया । भेड़िये और सियारों ने मृत हाथी को उसके गुदामार्ग की ओर से खाना शुरू किया। कौए भी उसी रास्ते से हाथी के पेट में चले गये और मांस तथा उसके रस का आहार करते हुए वहीं रह गये । गरमी के कारण हाथी का शरीर सूख जाने से प्रवेश-मार्ग भी सूखकर सिकुड़ गया। कौए बड़े सन्तुष्ट हुए कि वहाँ वे अब निर्बाध रूप से रहेंगे। बरसा का समय आया ! पहाड़ी नदी उमड़ चली । नदी
प्रवाह में हाथी का बहता हुआ शरीर महानदी की धारा के सहारे समुद्र में चला गया, जहाँ बड़ी-बड़ी मछलियों और मगरों ने उसे नोच डाला । फलतः, हाथी के कलेवर में पानी घुस गया और कौए उससे बाहर निकल पड़े, किन्तु कहीं किनारा न पाकर उड़ते-उड़ते वे वहीं मर गये । यदि वे वर्षा आने के पूर्व ही निकल गये होते, तो दीर्घकाल तक जीवित रहकर स्वच्छन्द घूमते और अनेक प्रकार के लहू-मांस का आहार करते ।
इस कथा को आध्यात्मिक प्रतीक- दृष्टान्त का रूप देकर कथाकार ने कहा है : कौए संसारी जीव के प्रतीक हैं, तो हस्तिकलेवर में उनका प्रवेश मनुष्य- शरीर प्राप्त करने का । कलेवर