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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
४८५ चावी, बुद्धि को कहते हैं और बुद्धि से सम्बद्ध आचार्य को भी 'चावी', कहा जाता था। चार्वाकदर्शन को लोकख्याति अधिक प्राप्त हुई, इसलिए इसे 'लोकायत' भी कहा जाता है। ____डार्विन के प्रसिद्ध विकासवादी सिद्धान्त भी चार्वाक के भूतवाद से ही प्रतिरूपित है। डार्विन के सिद्धान्त का सार यही है कि प्राणियों की शारीरिक तथा जैविक शक्ति का विकास क्रमशः होता है। जडतत्त्व के साथ ही चैतन्य का भी विकास होता चलता है। चैतन्य जडतत्त्व का ही एक अंग है, उससे भिन्न स्वतन्त्र तत्त्व नहीं। चेतना-तत्त्व का विकास जडतत्त्व के विकास से अनुबद्ध है।
जैनदर्शन, अनेकान्तवादी विचारधारा का समर्थक होने के कारण न तो एकान्ततः भूतवादी है, न ही अभूतवादी, अपितु वह भूताभूतवादी है । इसलिए, कर्म-सिद्धान्त का विचार करते समय उसने यह मन्तव्य प्रकट किया है कि पुद्गल और आत्मा, अर्थात् जड और चेतन तत्त्वों के सम्मिश्रण से ही कर्म का निर्माण होता है। अनेकान्तवादी जैन सिद्धान्त में चेतन और जड पदार्थों के नियन्त्रक एवं नियामक रूप में पुरुषविशेष, अर्थात् ईश्वर की सत्ता स्वीकार नहीं की गई है। उसके मत से विश्व अनादि एवं अनन्त है। प्राणी स्वकृत कर्मों के अनुसार ही संसार में जन्म-मरण का अनुभव करते हैं। यह संसार-चक्र विना किसी पुरुषविशेष की सहायता के स्वभावतः स्वतः चलता रहता है। कर्म से ही प्राणी के जन्म, स्थिति, मरण आदि की सिद्धि होती है। कर्म अपने नैसर्गिक या स्वाभाविक गुण के अनुसार स्वतः फल देता है। इसलिए पुद्गल और आत्मा की प्रधानता और अप्रधानता के कारण कर्म के दो रूप हो जाते हैं-द्रव्यकर्म और भावकर्म । भावकर्म में आत्मिक या चैतन्य-तत्त्व और द्रव्यकर्म में पौद्गलिक या जडतत्त्व की प्रधानता रहती है। तात्त्विक दृष्टि से आत्मा और पुद्गल के सम्मिश्रण से ही संसारी आत्मा का निर्माण होता है । कर्म का कर्तृत्व और भोक्तृत्व आदि का सम्बन्ध इसी संसारी आत्मा से है। __ जैनदर्शन के सिद्धान्त के अनुसार, भौतिक तत्त्वों के विशिष्ट संयोग से आत्मा की उत्पत्ति नहीं होती, अपितु उस (आत्मा) का स्वतन्त्र अस्तित्व है और वह चेतना-लक्षण-रूप है, अर्थात् चैतन्य ही आत्मा का धर्म है। जीव का वाच्य अर्थ ही आत्मा है और यह व्युत्पत्तियुक्त और शुद्ध पद है। 'तत्त्वार्थसूत्र' में जीव का लक्षण प्रस्तुत करते समय 'उपयोग' शब्द का प्रयोग किया गया है। _ 'उपयोग' का अर्थ है-बोधरूप व्यापार । बोध का कारण चेतनाशक्ति है। बोध या चेतनाशक्ति आत्मा में ही होती है, जड में नहीं। 'आचारांगसूत्र में ज्ञान को ही आत्मा कहा गया है। ज्ञानात्मक जीव या आत्मा ही ज्ञाता है और अजीव ज्ञेय है।
संघदासगणी ने जैनदृष्टि से आत्मा का बहुत ही प्रांजल और प्रामाणिक विवेचन कथा के माध्यम द्वारा (बालचन्द्रालम्भ : पृ.२५९) उपस्थापित किया है। अयोध्यानगर के राजा सुमित्र की पुत्री बुद्धिसेना (जो सुप्रबुद्धा नाम की गणिका से उत्पन्न हुई थी) की आत्मा-विषयक जिज्ञासा की पूर्ति के क्रम में छत्राकारनगर के प्रीतिंकर नामक राजर्षि (पहले राजा, बाद में प्रव्रजित साधु) के मुख से कथाकार ने कहलवाया है कि जीव-अजीव और बन्ध-मोक्ष के विधान के सम्यग्द्रष्टा आर्हतों १. नयते चार्वी लोकायते चार्वी बुद्धिः तत्सम्बन्धादाचार्योऽपि चार्वी, स च लोकायते शास्त्रे ... । (१.३.३९) २. उपयोगो लक्षणम्। -उमास्वाति : तत्त्वार्थसूत्र : २.८ ३. जे आया से विण्णाणे जे विण्णाणे से आया । (आचारांगसत्र)