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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा ____ मगध : राजगृह; अंग : चम्पा; वंग : ताम्रलिप्ति; कलिंग : कंचनपुर; काशी : वाराणसी; कोशल : साकेत (अयोध्या, विनीता; कुरु : हस्तिनापुर (गजपुर) ; कुशार्थ : शौरि (शौर्य) ; पंचाल : कम्पिल्लपुर; जंगल : अहिच्छत्रा; सुराष्ट्र (सौराष्ट्र) : द्वारवती (द्वारका) ; विदेह : मिथिला; वत्स : कौशाम्बी; शाण्डिल्य : नन्दिपुर; मलय : भद्रिलपुर; मत्स्य : वैराट; वरणा (वरुण) : अच्छा; दशार्ण : मृक्तिकावती; चेदि : शुक्तिमती; सिन्धु-सौवीर : वीतिभय; शूरसेन : मथुरा; भंगि : पावा; पुरुवर्त (प्रा पुरिव) : मासपुरी; कुणाल : श्रावस्ती; लाटः कोटिवर्ष एवं केकयार्द्ध : श्वेतविका । ___ कथाकार संघदासगणी ने बृहत्कल्पसूत्रभाष्योक्त जनपदों और नगरों की भौगोलिक सीमा के आधार पर भूगोलशास्त्रियों द्वारा यथापरिकल्पित महाजनपथ को ही वसुदेव के हिण्डन की पथ-पद्धति के रूप में चित्रित किया है। और इस प्रकार, उन्होंने 'वसुदेवहिण्डी' की कथाओं के माध्यम से प्राचीन भारत की पथ-पद्धति का भी निर्देश कर दिया है।
निष्कर्षतः ज्ञातव्य है कि वसुदेव की यात्रा या परिभ्रमण-वृत्तान्त में वर्णित सुख और दुःख प्राचीन युग की पथ-पद्धति की भौगोलिक स्थिति और उसकी सुरक्षा से सम्बद्ध हैं। इस क्रम में कथाकार ने उन प्राचीन पथों की कल्पना की है, जिनका व्यवहार हमारे विजेता राजे-महाराजे, तीर्थयात्री, सार्थवाह और पर्यटक या घुमक्कड़ समान रूप से करते थे। प्राचीन भारत में कुछ बड़े शहर अवश्य थे, पर देश की अधिक बस्तियाँ गाँवों में थीं और देश का अधिक भाग जंगलों से आच्छादित था, जिनसे होकर सड़कें निकलती थीं। इन सड़कों पर जंगली जानवरों और लुटेरों का भय बराबर बना रहता था। यात्रियों को स्वयं पाथेय का प्रबन्ध करके चलना पड़ता था। इन पथों पर अकेले यात्रा करना खतरनाक था, इसलिए सार्थ साथ चलते थे। इनके साथ यात्री निर्भय होकर यात्रा कर सकते थे। सार्थ केवल व्यापारी ही न थे, अपितु भारतीय संस्कृति के प्रसारक भी थे। कथाकार ने वसुदेव की यात्रा के व्याज से तत्कालीन भौगोलिक और राजनीतिक आसंग को कथा की आस्वाद्यता के साथ रुचिर-विचित्र शैली में उपन्यस्त तो किया ही है, अनेक ऐतिहासिक साक्ष्यों की अध्ययन सामग्री भी परिवेषित की है, जिसका सांस्कृतिक दृष्टि से अनुशीलन स्वतन्त्र शोध का विषय है।
(ङ) दार्शनिक मतवाद भारतीय सांस्कृतिक चेतना में धार्मिक और दार्शनिक चिन्तनधारा का प्रासंगिक महत्त्व है। सांस्कृतिक इतिहास की पूर्णता, समसामयिक दार्शनिक मतवाद की विवेचना से सहज ही जुड़ी रहती है । दर्शन-दीप्त मनीषा से मण्डित कथाकार संघदासगणी ने तत्कालीन दार्शनिक जगत् का, बड़ी विचक्षणता से, वर्णन उपन्यस्त किया है। कथाकार ने अनेक दार्शनिकों, सम्प्रदायों और भिक्षुओं के नामों की चर्चा की है, जो उस समय के धार्मिक आन्दोलनों में प्रमुख भाग ले रहे थे। __संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' में ब्राह्मणों और श्रमणों के दार्शनिक मतवादों के बीच संघर्ष या शास्त्रार्थमूलक स्थिति को दरसाते हुए श्रमणों की दार्शनिक चिन्तनधारा को उत्कृष्टं घोषित किया है। इसी क्रम में उन्होंने ब्राह्मणों के वेद को अनार्यवेद और जैन श्रमणों के वेद को आर्यवेद कहा है। 'वसुदेवहिण्डी' में प्रतिपादित अथर्ववेद भी अनार्यवेद का ही प्रतिकल्प है। हिंसामूलक यज्ञ का समर्थक होने के कारण ब्राह्मणों के वेद की संज्ञा 'अनार्यवेद' हुई और अहिंसापरक तप, स्वाध्याय आदि का समर्थक श्रमणों का वेद 'आर्यवेद' के नाम से समुद्घोषित हुआ। कुल मिलाकर,