SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 447
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन ४२७ के रथ पर गरुडध्वज (गरुड से अंकित ध्वज) और बलदेव के रथ पर तालध्वज (तालवृक्ष से अंकित ध्वज) के लहराते रहने का उल्लेख किया है (पीठिका : पृ. ८१) । संघदासगणी के अनुसार, उस युग में साधु-संघ के आदेश-निर्देश को राज्य-प्रशासन की ओर से मान्यता दी जाती थी और उसे विधिवत् कार्यान्वित किया जाता था। परम तपस्वी अनगारधर्मा विष्णुकुमार ने राजा महापद्म को प्रशासन-कार्य में अयोग्य घोषित कर उसे बन्दी बनाने का निर्देश उसके पुत्र को दिया था और महापद्म के पुरोहित नमुचि को, जो साधु-संघ को उत्पीड़ित करता था, जब राज्य-शासन की ओर से प्राणदण्ड की आज्ञा मिली, तब साधु-संघ ने मृत्युदण्ड रोककर उसे देश से निर्वासित करा दिया था (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १३१) । ___ उस समय राज्य-प्रशासन की ओर से अनाथस्तम्भ ('अणाहखंभ') स्थापित रहता था। वह ऐसा स्तम्भ था, जिसके पास, सताये गये व्यक्ति अपनी फरियाद के लिए आ खड़े होते थे। कथा है कि श्रावस्ती के राजा जितशत्रु का पुत्र कुमार मृगध्वज एक दिन उद्यान की शोभा देखकर नगर लौट रहा था। उसने विश्वस्त भाव से विचरण करते हुए भद्रक भैंसे को देखा. भैंसे को देखते ही उसे क्रोध हो आया। उसने म्यान से तलवार निकाली और एक ही वार में उसका एक पैर काट डाला। क्रोध में आकर जब उसने दुबारा प्रहार करना चाहा, तब पैर पड़कर उसके आदमियों ने उसे रोका : 'युवराज ! हमारे आदरणीय महाराज ने इस भैंसे को अभयदान दिया है, इसीलिए इसका वध करना उचित नहीं है। इसे छोड़ दें।' मृगध्वज ने बड़ी कठिनाई से अपना क्रोध-संवरण किया। भैसा भी तीन पैरों से लँगड़ाकर क्लेशपूर्वक चलता हुआ अनाथस्तम्भ के पास आ खड़ा हुआ। भैंसे को कष्टपूर्ण स्थिति में देख लोग दयाद्रवित हो उठे और हाहाकार करने लगे। कारण का पता लगाकर राजकीय अधिकारियों ने प्राप्त सूचना के साथ राजा जितशत्रु से निवेदन किया : ‘स्वामी ! कुमार मृगध्वज के आदमियों द्वारा भैंसे की अभयदान-प्राप्ति के बारे में सूचित किये जाने के बावजूद उन्होंने तलवार के वार से भैंसे का एक पैर काट डाला। तीन पैरों से चलता हुआ भैंसा अनाथस्तम्भ के पास आ खड़ा हुआ है। इस विषय में न्याय के लिए स्वामी ही प्रमाण हैं।' राजकीय अधिकारियों से वस्तुस्थिति जानकर राजा ने कुमार के लिए वध की आज्ञा दी (बन्धुमतीलम्भ : पृ. २७०)। संघदासगणी के अनाथस्तम्भ का परवर्ती समर्थन प्राचीन भारतीय इतिहास के न्यायप्रिय राजा जहाँगीर के प्रशासन-काल से होता है। जहाँगीर ने अपने महल में एक घण्टा टॅगवा रखा था, न्याय का इच्छुक कोई भी व्यक्ति, किसी भी समय उसे बजाकर न्याय की माँग करता था और जहाँगीर, उसकी फरियाद की सुनवाई तत्क्षण करके अपना फैसला सुना देता था। राजभवन में भोगविलासमूलक शीशमहल के प्रबन्ध का उल्लेख परवर्ती कालीन प्राचीन भारतीय कथा-साहित्य में प्राय: उपलब्ध होता है। किन्तु, 'वसुदेवहिण्डी' में चित्रित दर्पणगृह ('आयंसघर) तत्कालीन राजाओं के लिए संसार-विरक्ति का भी कारण बनता था। कथा है कि एक बार दर्पणगृह में जाकर शान्तिस्वामी ने प्रव्रज्या लेने का संकल्प किया (केतुमतीलभ्य : पृ. ३४१) । इसी प्रकार कुन्थुस्वामी भी एक दिन जब दर्पणगृह में प्रविष्ट हुए, तभी वहाँ उन्हें १. द्र. धनपाल-कृत 'तिलकमंजरी' (११ वी शती)
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy