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वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप
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'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' के आरम्भ में उज्जयिनी की प्रशंसा और वहाँ के शासक महासेन प्रद्योत की मृत्यु का उल्लेख है । उसके बाद उसका पुत्र गोपाल राज्याभिषिक्त हुआ । किन्तु, पितृहन्ता होने के अपयश से उसने राज्य का परित्याग कर दिया और उसका भाई पालक राजा हुआ । उसने भी राज्य त्याग दिया और उसका भतीजा गोपाल का पुत्र अवन्तिवर्द्धन सिंहासन पर बैठा । चौथे सर्ग से पूरे ग्रन्थ में उदयन पुत्र नरवाहनदत्त की प्रेमकथा का विस्तार हुआ है । बुधस्वामी भी अद्भुत प्रतिभाशाली कथाकार थे और डॉ. अग्रवाल के उपर्युक्त वैचारिक परिप्रेक्ष्य में यह अनुमान करने का अवसर मिलता है कि उन्होंने (बुधस्वामी ने ) लगभग खुष्टाब्द की प्रथम - द्वितीय शती में, भारत के स्वर्णयुग की उत्कृष्टतर संस्कृति का साक्ष्य प्रस्तुत करनेवाली प्रवाहमयी संस्कृत - शैली में नरवाहनदत्त की विमोहक कथा का विन्यास किया ।
फिर भी, काल-निर्धारण के आधार पर, 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' और 'वसुदेवहिण्डी' की पूर्वापरवर्त्तिता विषयक किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए शोधमनीषियों के ऊहापोह का सातत्य अपेक्षित ही रहेगा । १
विद्वानों द्वारा 'बृहत्कथा' की नेपाली वाचना के रूप में स्वीकृत 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' का मूल संस्करण सर्वप्रथम फ्रेंचमनीषी प्रो. लाकोत ने देवनागरी लिपि में फ्रेंच - अनुवाद के साथ सन् १९०८ ई. में पेरिस से प्रकाशित कराया था । उसके बाद सन् १९६४ ई. में, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने प्रो. लाकोत के संस्करण की दुर्लभता देखकर इस महत्कृति का एक नया संस्करण तैयार किया, जो उनकी मृत्यु के बाद, सन् १९७४ ई. में, सांस्कृतिक अध्ययन विषयक परिशिष्ट • के साथ, डॉ. पी. के. अग्रवाल द्वारा सम्पादित होकर, पृथ्वी प्रकाशन, वाराणसी से प्रकाशित हुआ । इन दोनों संस्करणों के अतिरिक्त, बिहार- राष्ट्रभाषा परिषद् की त्रैमासिक शोध पत्रिका ( ' परिषद्पत्रिका') में इस महान् कथाग्रन्थ का डॉ. रामप्रकाश पोद्दार - कृत हिन्दी अनुवाद डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव द्वारा सम्पादित होकर धारावाहिक रूप से ( वर्ष १६ : अंक ३ से वर्ष १८ : अंक ४ तक) प्रकाशित हुआ है। डॉ. जगदीशचन्द्र जैन की सूचना के अनुसार, बुधस्वामी की इस रचना की अपूर्ण पाण्डुलिपि नेपाल से प्राप्त हुई, जो प्रोफेसर लाकोत तथा रैन्यू द्वारा सम्पादित एवं फ्रेंच भाषा में अनूदित होकर पेरिस से सन् १९०८-२९ ई. में प्रकाशित हुई । लाकोत ने 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' और 'कथासरित्सागर' का तुलनात्मक अध्ययन फ्रेंच भाषा के माध्यम से किया और इस विषय पर प्रस्तुत उनके फ्रेंच - निबन्ध रेवरेण्ड ट बार्ड द्वारा अँगरेजी में अनूदित होकर बँगलोर की 'क्वार्टर्ली जर्नल ऑव द मिथिक रिसर्च सोसायटी' से प्रकाशित हुआ ।
उपरिप्रस्तुत सन्दर्भ से यह स्पष्ट है, बुधस्वामी का 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' पर आधृत' उसकी उत्तरकालीन वाचनाओं में प्रथमस्थानीय है । भारतीय कथाशैली
१. डॉ. जगदीशचन्द्र जैन ने चौखम्भा ओरियण्टालिया, वाराणसी से सन् १९७८ ई. में प्रकाशित 'नारी के विविध रूप' नामक पुस्तक (कथा-संग्रह) की भूमिका (पृ. ९-१० पा. टि) में बुधस्वामी का काल पंचम शतक और संघदासगणी का काल तृतीय शतक निर्धारित किया है। इस प्रकार, डॉ. जैन के मत से 'वसुदेवहिण्डी', ‘बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' से पूर्ववर्ती सिद्ध होती है।
२. 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' का डॉ. रामप्रकाश पोद्दार - कृत मूल-सह- अँगरेजी अनुवाद; तारा बुक एजेंसी, वाराणसी से उपलभ्य है ।
३. 'परिषद् - पत्रिका', वर्ष १७, अंक ४, पृ. ४४
४. ताभ्यामुक्तमशक्यं तद्गुणाढ्येनापि शंसितुम् । —बृहत्कथाश्लोकसंग्रह, १४. ६०