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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
करना चाहिए ? बड़ी भुखमरी आ गई है। जनपदों में कहीं भी वायसपिण्ड नहीं मिलता। जूठन में छोड़ा गया अन्न भी नहीं मिलता। इसलिए, हम कहीं अन्यत्र चलें।" एक बूढ़े कौए ने कहा : “हम सभी समुद्रतट पर चले चलें। वहाँ कपिंजल हमारे भागिनेय होंगे। वे हमें समुद्र से मछली निकालकर देंगे। इसके अलावा दूसरा कोई जीने का सहारा नहीं है।" यह सोचकर वे सभी समुद्रतट पर चले गये। वहाँ कपिंजलों ने कौओं को अतिथि मानकर उनका स्वागत किया ।
बारह वर्ष के बाद दुर्भिक्ष समाप्त हो गया और सुभिक्ष लौट आया। जनपदों में वायसपिण्ड सुलभ हो गया। जब सभी कौए वापस जाने लगे, तब कपिंजलों ने वहीं रहने के लिए उनसे आग्रह किया । तब, “प्रतिदिन सूर्य उगने के पहले तुम्हारा अधोभाग देखना पड़ता है, यह स्थिि हमें सहन नहीं होती” इस प्रकार कपिंजलों पर लांछन लगाकर कृतघ्न कौए वापस चले गये ।
'वसुदेवहिण्डी' में भारुण्डपक्षी का वर्णन (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १४९) आया है, जिसका विस्तार परवर्त्ती प्राकृत-साहित्य में विविधता के साथ उपलब्ध होता है । संघदासगणी ने लिखा है। कि भारुण्ड पक्षी रत्नद्वीप में रहते हैं और वे महाशरीर होते हैं। वे बाघ और रीछ तक को मारकर उसका मांस खाते हैं । वे अजपथ-प्रदेश में रत्नद्वीप से विचरण के लिए आया करते हैं । चारुदत्त और उसके सहयात्री सार्थवाह, बकरों को मारकर उनका मांस खा गये और उनके ताजे रुधिराक्त चमड़े की खोली में घुसकर बैठ गये। तभी, भारुण्डपक्षी वहाँ आये और मांस के लोभ से आकृष्ट होकर चमड़े की खोली में घुसे एक-एक सार्थवाह को अपनी चोंचों में उठाकर आकाश में उड़ गये । 'प्राकृतशब्दमहार्णव' ने दो मुँहवाले पक्षिविशेष को भारुण्ड कहा है। आप्टे ने लिखा है कि भारुण्ड एक प्रकार का काल्पनिक पक्षी है, जो केवल कहानियों में वर्णित है ।
एक बार जरासन्ध के आदमियों ने वसुदेव को चमड़े के थैले में डालकर राजगृह-स्थित छिन्नकटक पर्वत से नीचे गिरा दिया था। वह जिस समय 'घू-घू' आवाज के साथ शिलाखण्डों पर लुढ़कते हुए गिर रहे थे, उस समय उन्होंने मन में सोचा था कि जिस प्रकार चारुदत्त को भारुण्ड पक्षी ने आकाश में ले जाकर छोड़ दिया था, वही गति (भवितव्यता) मेरी भी होगी (पृ. २४८ : वेगवतीलम्भ) ।
संघदासगणी द्वारा उल्लिखित पक्षी कंक को 'प्राकृतशब्दमहार्णव' ने विशिष्ट चिड़िया कहा है । आप्टे ने बगुला अर्थ दिया है। इसीलिए बगुले के परों से युक्त बाण को 'कंकपत्र' कहते हैं। संघदासगणी ने कंक को मांसभोजी पक्षी के अर्थ में चित्रित किया है। जीवहिंसा के कर्मबन्ध से हरिश्मश्रु मरकर पहले शार्दूल हुआ था और उसके बाद के भव में कंकशकुन के रूप उत्पन्न हुआ था (बन्धुमतीलम्भ: पृ. २७८ ) ।
इस प्रकार, संघदासगणी ने अपनी कथा के विस्तार के क्रम में पशु-पक्षियों का सोद्देश्य चित्रण किया है। इसमें कथाकार ने एक ओर यदि तत्कालीन सामाजिक और सांस्कृतिक कला-समृद्धि और प्राकृतिक जगत् से लोकजीवन के नित्य सम्बन्ध को दिग्दर्शित किया है, तो दूसरी और आध्यात्मिक और नैतिक दृष्टि से भारतीय जन-स्तर की समीक्षा भी उपन्यस्त की है। कुल मिलाकर, मानव-जीवन और पशु-जीवन के परस्पर प्रभाव की ओर संकेत करना ही कथाकार प्रमुख लक्ष्य है।