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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
ध्यातव्य है कि संघदासगणी के काल में श्वेताम्बर - सम्प्रदाय के आगम-ग्रन्थों में तीर्थंकरों के, वैवाहिक जीवन जीने के बाद, प्रवृत्तिमार्ग से निवृत्तिमार्ग की ओर जाने का उल्लेख है, जब कि ठीक इसके विपरीत दिगम्बर-सम्प्रदाय में तीर्थंकरों के वैवाहिक जीवन को अस्वीकृत किया गया है । दिगम्बरों में रत्यात्मकता या रसात्मकता का सम्पूर्ण निषेध है; इसलिए रत्यात्मक सरस कथाओं के लेखक संघदासगणी के लिए दिगम्बर आम्नाय के अनुसार काम कथा की रचना सम्भव भी नहीं थी । संघदासगणी के श्वेताम्बर होने का प्रकारान्तर संकेत उनके द्वारा कथाव्याज से प्रयुक्त 'श्वेताम्बर' ('राहुगो नाम बलामूको सेयंबरो; पीठिका: पृ. ८६) शब्द से भी होता है। और फिर, मंगलकार्यों श्वेत वस्त्र परिधान का सार्वत्रिक उल्लेख से भी उक्त संकेत को समर्थन मिलता है ।
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श्रमणवादी संघदासगणी का श्रमण-धर्म के उत्कर्ष के प्रति सहज आग्रह होने के कारण उन्होंने ब्राह्मण-धर्म का जगह-जगह अपकर्ष प्रस्तुत किया है । यद्यपि, परिभाषा की दृष्टि से दोनों परम्पराओं के धर्म - सिद्धान्त एक हैं। 'अहिंसा परमो धर्मः' यदि वैदिक परम्परा का सिद्धान्त है, तो 'परस्स अदुक्खकरणं धम्मो' (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ७६) श्रमण परम्परा का । साहित्य जगत् या धार्मिक- दार्शनिक क्षेत्र में परस्पर दोष-दर्शन या आक्षेप - प्रत्याक्षेप की बड़ी प्राचीन परम्परा रही है। तभी तो ब्राह्मणवादी बुधस्वामी ने भी 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' में ऋषिदत्ता नाम की जैनसाध्वी का नरवाहनदत्त के मित्र गोमुख से विवाह कराकर उसे संघ - बहिष्कृता के रूप में प्रस्तुत किया है । संघदासगणी ने ब्राह्मण-श्रमण-विवाद का प्रसंग उठाकर ब्राह्मण का पराजय दिखाया है या फिर उसे श्रमण-धर्म स्वीकारने को विवश किया गया है। शास्त्रार्थ में पराजित होने पर अनेक घातक प्रतिक्रियाएँ (द्र. विष्णुकुमारचरित भी; गन्धर्वदत्तालम्भ, पृ. १२८) भी होती थीं ।
इस सम्बन्ध में संघदासगणी ने जातिस्मरण तथा पूर्वभव - ज्ञानविषयक शास्त्रार्थ की एक बड़ी रोचक कथा (पीठिका: पृ. ८८-८९) प्रस्तुत की है। इसमें सत्य नामक सत्यवादी साधु ने दो ब्राह्मणों को पूर्वभव के प्रति विश्वास दिलाते हुए यह ज्ञात कराया कि वे दोनों अपने पूर्वभव में सियार ही थे । मध्यस्थों ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया। तब दोनों ब्राह्मण बड़े बेमन से बोले : "हम निरुत्तर हो गये। हमारा सन्देह दूर हो गया । भवान्तर - विज्ञानी श्रमण ने हमें पराजित कर दिया ।" इन दोनों ब्राह्मणों के नाम थे- अग्निभूति और वायुभूति ।
सभी से प्रशंसित परिषद् (शास्त्रार्थ - सभा) समाप्त हुई । अग्निभूति और वायुभूति ने अपने पराजय की बात अपने माता ( अग्रिला)-पिता (सोमदेव) जाकर कही । रोष से प्रदीप्त होकर उन्होंने उनसे कहा: “बेटे ! जिस श्रमण ने तुम्हें भरी सभा में तिरस्कृत किया, उसका चुपके से वध कर दो।” “ऐसे महान् आत्मावाले तपस्वी का वध कैसे किया जायगा ?” बेटों ने कहा । "तब हमें ही मार डालो, लेकिन प्रतिकूलधर्मी मत बनो ।” माता-पिता ने कहा ।
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माता-पिता की बात रखने के लिए अग्निभूति और वायुभूति मध्यरात्रि में सत्य के पास गये । सत्य साधु 'सुमन' यक्ष की शिला पर कायोत्सर्ग कर रहे थे । यक्ष के विद्याप्रभाव से दोनों दुराचारी ब्राह्मणपुत्र चित्रलिखित की तरह स्तम्भित हो गये। सुबह होने पर उनके बन्धुओं ने उन्हें वैसी अवस्था में देखा, तो सभी ने सत्य साधु से उनके जीवन की रक्षा के निमित्त प्रार्थना की। साधु ने कहा कि यक्ष ने क्रुद्ध होकर इन्हें स्तम्भित किया है। यक्ष से बहुत प्रार्थना की गई, फिर भी वह ब्राह्मणपुत्रों को क्षमादान के लिए तैयार नहीं हुआ। अन्त में, सत्य साधु के कहने पर यक्ष