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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा
(ख) सामान्य सांस्कृतिक जीवन - किसी भी लोकजीवन या समाज के सांगोपांग अध्ययन के लिए उसके सांकृतिक पक्षों पर समग्रता से दृष्टिनिक्षेप करना आवश्यक होता है। इसलिए, उसके सांस्कृतिक जीवन के साथ-साथ उसकी अर्थ-व्यवस्था एवं प्रशासन-प्रणाली, जनजीवन से सम्बद्ध समान्तर दार्शनिक मतवाद तता भौगोलिक एवं राजनीतिक ऐतिह्य का भी विश्लेषणात्मक दृष्टि से अनुशीलन अपेक्षित हो जाता है। यहाँ सर्वप्रथम 'वसुदेवहिण्डी' में चित्रित सामान्य सांस्कृतिक जीवन का अध्ययन प्रसंगोपेत है। - संघदासगणी ने ईसा की तृतीय-चतुर्थ शती या भारत के स्वर्णकाल की संस्कृति के रूपचित्रण के माध्यम से तत्कालीन समाज की कलाचेतना का सघन विवरण उपन्यस्त किया है, जो पाठकों के हृदय में ज्ञान और आनन्द- दोनों की एक साथ सृष्टि करता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि संघदासगणी द्वारा प्रस्तुत सांस्कृतिक सामग्री को बीसवीं शती की मानसिकता के साथ देखने से उसके वर्णन धुंधले पड़ जाते हैं, इसलिए जब हम स्वयं अपने-आपको संघदासगणी के काल में ले जाकर उनकी 'वसुदेवहिण्डी' के पाठक बन जाते हैं, तब उनके कथात्मक वर्णनों के मर्म तक पहुँचने के लिए हमारी जिज्ञासा सहज ही उत्कण्ठित होने लगती है।
संघदासगणी का समय स्वर्णयुग का मध्यपूर्व (तृतीय शती का उत्तरार्द्ध और चतुर्थ शती का पूर्वाद्ध) है। उस समय गुप्तपूर्वकालीन संस्कृति पूर्ण रूप से विकसित हो चुकी थी। कला, धर्म, दर्शन, राजनीति, आचार, विचार आदि की दृष्टि से संघदासगणी के अधिकांश उल्लेख भारतीय स्वर्णकालीन संस्कृति पर समीचीन प्रकाश जालते हैं। किन्तु, सांस्कृतिक सामग्री की दृष्टि से अभी तक 'वसुदेवहिण्डी' का सांगोपांग अध्ययन नहीं हुआ है। यहाँतक कि समग्र विद्वज्ज्गत् में 'वसुदेवहिण्डी' का केवल नामतः उल्लेख हुआ है, उसके विषय की चर्चा या विवेचन बहुत ही कम मात्रा में उपलब्ध है। सच बात तो यह है कि 'वसुदेवहिण्डी' का सांस्कृतिक वर्णन विचित्र
और विराट् है, जिसका पुंखानुपुंख अध्ययन एक स्वतन्त्र शोधप्रबन्ध का विषय है। यहाँ स्थालीपुलाकन्याय से संघदासगणी के कतिपय महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक तथ्यों का निरीक्षण किया गया है।
यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि संघदासगणी के सांस्कृतिक वर्णन उनकी प्रतिभा और पाण्डित्य से प्रसूत कलावरेण्यता से मण्डित हैं, इसलिए वे नीरस या बोझिल नहीं प्रतीत होते, वरन् अत्यन्त रुचिकर, सरस और हृदयग्राही लगते हैं। सूक्ष्मेक्षिका से देखा जाय, तो संघदासगणी के एक-एक वाक्य, पदशय्या और शब्द में भाव और रस के उच्छलन की सहज अनुभूति या प्रतीति होगी। सचमुच, संघदासगणी की 'वसुदेवहिण्डी' सांस्कृतिक इतिहस का अपूर्व साधन है। फलतः, इसे एक बार पढ़कर तृप्ति नहीं होती, अपितु बार-बार उसके वर्ण्य विषयों के भावों में रमने और 'सुप्रयुक्त' शब्दों के अर्थों से निर्मित होनेवाले बिम्बों को आत्मसात् करने की आकांक्षा उद्ग्रीव होती है। १.डॉ.जगदीशचन्द्र जैन ने अपनी सम्पादित कृति 'दि वसुदेवहिण्डी एन् ऑथेण्टिक जैन वर्सन ऑव दि बृहत्कथा'
की भूमिका में सूचना दी है कि नागपुर विश्वविद्यालय के डॉ. ए. पी. जमखेदकर ने पूना विश्वविद्यालय के तत्त्वावधान में, प्रो. एस्. बी. देव के निर्देशन में, 'वसुदेवहिण्डी का सांस्कृतिक इतिहास' विषय पर पी-एच.डी. के लिए, सन् १९६५ ई. में, अपना शोध-प्रबन्ध (अंगरेजी) प्रस्तुत किया था।