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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
(घ) वास्तुविद्या
सनातनी परम्परा के अनुसार, भारतीय वास्तुविद्या या स्थापत्यवेद अथर्ववेद का उपवेद है । इससे स्पष्ट ही इस विद्या की प्राचीनता सूचित होती है । 'मत्स्यपुराण' में भृगु, अत्रि, वसिष्ठ आदि जिन अट्ठारह वास्तुशास्त्र के उपदेशकों का उल्लेख हुआ है, उनमें अनेक उपदेशक वैदिक ऋषि या वैदिककालीन महापुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हैं। स्थापत्य नाम का उपवेद ही परवर्ती काल में वास्तुशास्त्र अथवा शिल्पशास्त्र के नाम से विख्यात हुआ। ब्राह्मणग्रन्थों, विशेषतया वात्स्यायन के 'कामशास्त्र' में वास्तुविद्या चौंसठ कलाओं में परिगणित हुई है। बौद्धों के 'ललितविस्तर' में वर्णित छियासी कलाओं में उद्याननिर्माण और रूपकला के अन्तर्गत वास्तुविद्या का विनियोग हुआ है। जैनों के 'समवायांगसूत्र' के अनुसार, बहत्तर कलाओं में 'वास्तुमान' की भी गणना हुई है । राजशेखरसूरि के 'प्रबन्धकोश' की बहत्तर कलाओं की सूची में भी 'प्रासादलक्षण' और 'पाषाणकर्म'
नाम से वास्तुशास्त्र को समाविष्ट किया गया है। इस प्रकार, भारतीय प्राच्यविद्या के अनेकानेक ग्रन्थों में प्राप्य कलाओं की सूची में, प्राय: सर्वत्र, वास्तुविद्या को समादरणीय स्थान दिया गया है । भारतीय कलाओं में वास्तुशास्त्र या स्थापत्यशास्त्र, शिल्पशास्त्र और चित्रशास्त्र - मुख्यतः ये तीन कलाएँ ही विशिष्ट हैं। भवन निर्माण, प्रतिमा या मूर्ति निर्माण तथा चित्रकर्म-विधान, ये तीन वास्तुशास्त्र के मुख्य विषय हैं। इस प्रकार, वास्तुशास्त्र का क्षेत्र बड़ा व्यापक हो जाता है । वास्तुशास्त्र चूँकि शिल्पशास्त्र का भी प्रतिनिधि है, इसलिए वस्त्रों और अलंकारों की निर्मिति-कला भी वास्तुशास्त्र अन्तर्भूत है ! संघदासगणी की वास्तुकल्पना को यदि उनके द्वारा चित्रित वस्त्रों और अलंकारों की कलारमणीय विविधकल्पता से जोड़कर देखा जाता है, तो उनकी कलाभूयिष्ठ कलाकृति 'वसुदेवहिण्डी' वास्तुशास्त्र का उत्तम निदर्शन सिद्ध होती है
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मानव हृदय में निहित आत्मरक्षा और सुखप्राप्ति की भावना से ही भवन निर्माणकला का आविर्भाव हुआ है । इसी को सर्वसाधारण की भाषा में वास्तुशास्त्र या वास्तुविज्ञान (साइन्स ऑ बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन) कहते हैं । यह स्थापत्यशास्त्र या अभियन्त्रणा (इंजीनियरिंग) का एक उपांग है । स्थापत्यशास्त्र की उपयुक्तता के सम्बन्ध में सूक्ष्मेक्षिका से विचार करने पर यह सिद्ध होता है कि वास्तुविद्या या स्थापत्यकला काष्ठ, पाषाण आदि पदार्थों के नैसर्गिक रूप में इच्छानुरूप परिवर्तन करती हुई उनमें सौन्दर्य उत्पन्न करती तथा उनकी उपयोगिता बढ़ाती है। इस कला के द्वारा प्रकृति-निर्मित जड पदार्थों में विभिन्न मनोहारी भावों की उत्पत्ति होती है, जिससे देश का मूर्त्तिमान् इतिहास प्रकट होता है तथा वहाँ के निवासियों के गुणधर्म, स्वभाव, आचार-विचार और व्यवहारों का ज्ञान प्राप्त होता है । आदिकाल में, मौखिक परम्परा में सुरक्षित यह कला कालक्रम से वेदसूत्रग्रन्थों, स्मृतियों और पुराणों में समाविष्ट हो गया । वेद, पुराण आदि में तथा रामायण और महाभारत में जो विश्वकर्मा और मयासुर (मयदानव ) का उल्लेख हुआ है, वे तत्कालीन स्थापत्यशास्त्र के पूर्णज्ञाता एवं सूत्रधार ( स्थपति) थे । विश्वकर्मा के अनुयायी धार्मिक वस्तुविज्ञान ( मन्दिर आदि) और मयासुर के अनुयायी व्यावहारिक वास्तुविज्ञान (राजभवन आदि) के प्रवर्तक स्थपति थे ।
गृह-निर्माण-सम्बन्धी विद्या या कला ही वास्तुविद्या या वास्तुकला है। गृह या वासस्थान को ही 'वास्तु' कहते हैं, जिसमें प्राणी निवास करते हैं। इसीलिए वास्तु की व्युत्पत्ति में कहा