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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
२११ विभिन्न रोग और उनकी चिकित्सा :
संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' में प्रमुखतया कास, श्वास, ज्वर, दाह, कुक्षिशूल, भगन्दर, कण्डू (खुजली), प्ररोह (रक्तार्श = खूनी बवासीर), अतीसार, विसूचिका, कुष्ठ आदि कई महारोगों का उल्लेख किया है, जिनमें कुष्ठ की चिकित्सा पर विशेष प्रकाश डाला है। जैनागमों में सोलह भयंकर रोगों की चर्चा बार-बार आई है। ये सोलह रोग है: श्वास, कास, ज्वर, दाह, कुक्षिशूल (पेटदर्द), भगन्दर, अर्श (बवासीर), अजीर्ण, दृष्टिरोग, मूर्द्धाशूल (सिरदर्द), अकारक (अरोचक), नेत्रपीड़ा, कर्णपीड़ा, कण्डू (खुजली), उदररोग और कोठरोग (आमाशय का रोग)। ये सोलहों रोग बड़े आतंककारी होते हैं, इसलिए इन्हें 'रोगातंक' कहा गया है । 'उपासकदशांग' के चतुर्थ अध्ययन में कथा है कि वाराणसी के गृहपति श्रमणोपासक शूरदेव को व्रतविचलित या धर्मच्युत करने के लिए विघ्नकारी देव ने उसके शरीर में उक्त सोलह रोगातंक एक साथ उत्पन्न कर दिये थे। किन्तु, वह श्रमणोपासक निर्भय और अविचल भाव से धर्मध्यान में लीन रहा।
इसी प्रकार की कथा 'वसुदेवहिण्डी' में भी आई है। चौदहवें मदनवेगालम्भ की कथा का प्रसंग है : चक्रवर्ती राजा सनत्कुमार ने अपने पुत्र को राज्याधिकार सौंप दिया और कपड़े के छोर पर लगे घास की तरह भारतवर्ष के प्रशासन कार्य से अलग होकर श्रामण्य स्वीकार कर लिया। सूत्र और अर्थ के ज्ञान से सम्पन्न वह महानुभाव राजा एक लाख वर्ष तक तपोविहार करता रहा। तभी उसके शरीर में आठ आतंककारी रोग कास, श्वास, ज्वर, दाह, उदरपीड़ा (कुक्षिशूल), भगन्दर, कण्डू और प्ररोह (रक्ताश) उत्पन्न हुए। यहाँ संघदासगणी ने सोलह रोगातंकों की संख्या न देकर 'केवल आठ के नाम दिये हैं।
__ इसी कथा के क्रम में कथाकार ने इस बात की मीमांसा की है कि रोग पूर्वकर्मानुबन्ध-जनित होते हैं। इसलिए, रोगमुक्त होने के बाद भी मनुष्य कर्मानुबन्ध को प्राप्त कर पुन: रोगग्रस्त हो सकते हैं। इसलिए, तप और संयम की औषधि द्वारा रोगों की चिकित्सा करने से, कर्मानुबन्ध के अभाव की स्थिति में, मनुष्य पुन: कभी रोगग्रस्त नहीं होते। इसीलिए, साक्षात् इन्द्र ने चिकित्सक का रूप धारण कर सनत्कुमार की चिकित्सा की, जिससे वह रोगमुक्त हो गया। किन्तु कर्मानुबन्धवश पुन: रोगग्रस्त हो जाने की आशंका से तप और संयम-रूप औषधि का सेवन करता रहा (मदनवेगालम्भ : पृ. २३४-२३५) ।
चिकित्सक रूपधारी इन्द्र ने श्लेष्मौषधि, यानी थूहर के पत्ते का रस राजा के शरीर के एक अंग में चुपड़कर रगड़ दिया। फलत:, राजा का शरीर रोगमुक्त हो गया। सुश्रुत ने सेहुण्ड, यानी थूहर को मुष्कादिगण में परिगणित किया है और भावमिश्र ने गुडूच्यादिवर्ग में। भावमिश्र के अनुसार, थूहर में एक साथ उक्त आठों रोगों के अतिरिक्त और भी कई रोगों के नाश करने की शक्ति निहित है। इसीलिए, इन्द्र द्वारा प्रयुक्त एकमात्र श्लेष्मौषधि (थूहर) से ही राजा के सारे रोगातंक दूर हो गये। १.सेहुण्डो रेचनस्तीक्ष्णो दीपनः कटुको गुरुः ।
शूलामाष्ठीलिकाध्मानकफगुल्मोदरानिलान् ॥ उन्मादमोहकुष्ठार्शः शोथमेदोऽश्मपाण्डुताः । व्रणशोथज्वरप्लीहविषदूषीविषं हरेत् ॥
-गुडूच्यादिवर्ग, श्लो.७४-७५