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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
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कहना न होगा कि 'वसुदेवहिण्डी' की कथाओं या समस्त जैनकथाओं की मूल भावधारा का विस्तार पूर्वजन्म और जातिस्मरण की अवधारणा से हुआ है। इसलिए, गर्भ में अवतरित होनेवाले तीर्थंकर या विशिष्ट विद्याधर या भूपतिविशेष को पूर्वजन्म का स्मरण बना रहता है।
आयुर्वेदज्ञों द्वारा गर्भ में प्रविष्ट जीवात्मा के गर्भवासकाल की अवधि सामान्यतः नौ महीने की मानी जाती है । इस अवधि में जीव सर्वांगसम्पन्न और सप्राण हो जाता है । सुश्रुत ने नौ महीने तक गर्भवासकाल माना है। भावमिश्र ने नवें, दसवें और विकृति की स्थिति में ग्यारहवें और बारहवें महीने भी स्त्रियों द्वारा गर्भ के प्रसव की बात लिखी है । संघदासगणी ने भी तीर्थंकरों के गर्भवासकाल का उल्लेख किया है। यों सामान्यतया उन्होंने 'समय पूर्ण होने पर' या 'समय प्राप्त होने पर' प्रसव की बात कही है । शान्तिनाथस्वामी ने नौ मास और साढ़े सात रात-दिन बीतने पर जन्म लिया था । (पृ. ३४० ) । अरजिन स्वामी ने नौ महीना बीतने के बाद दसवें महीने के प्रारम्भ में जन्म ग्रहण किया था (पृ. ३४६) । ऋषभस्वामी की प्रसवोत्तर उपचार विधि तो एक मिथक का ही रूप ले लिया है ।
संघदासगणी ने अनुकूल सन्तान (पुत्र) की प्राप्ति के निमित्त, आराधना के लिए नैगमेषी या हरिनैगमेषी.' देव की जो कल्पना की है, वह आयुर्वेदोक्त बालग्रह नैगमेय या नैगमेष से तुलनीय है । सत्यभामा ने प्रद्युम्न जैसी वर्चस्वी पुत्र - सन्तति की प्राप्ति के लिए कृष्ण से जब अनुरोध किया, तब कृष्ण ने हरिनैगमेषी ( नैगमेषी) की आराधना की थी । देव ने प्रसन्न होकर कृष्ण से कहा था कि जिस देवी के साथ आपका पहले समागम होगा, उसी के प्रद्युम्न जैसा पुत्र होगा। किन्तु, इसमें जाम्बवती ने बाजी मार ली और उसे ही प्रद्युम्न के समान तेजस्वी शाम्ब नामक पुत्र प्राप्त हुआ। (पीठिका, पृ. ९७)
सुश्रु ने बालक की रक्षा के लिए नैगमेष देव की रूप-रचना और उसकी पूजा-प्रार्थना का उपदेश किया है और पूजा-विधान में बतया है कि बच्चे को बरगद के वृक्ष के नीचे स्नान कराये । बरगद के वृक्ष के नीचे षष्ठी तिथि को बलि निवेदित करे और इस प्रकार प्रार्थना करे: “बकरे. के समान मुख, चंचल आँख और भौंहोंवाले, कामरूप, महायशस्वी ('महायशाः' की जगह 'महाशयाः' पाठान्तर की कल्पना की जाती है, तदनुसार महान् आशयवाले, यानी अतिशय उदारहृदय) बालकों के पिता नैगमेष देव बालक की रक्षा करें। " २
आसन्नप्रसवा के उपचार की विधि में भावमिश्र ने लिखा है कि आसन्नप्रसवा नारी को, उसके सारे शरीर में तेल चुपड़कर गरम जल से स्नान करा देना चाहिए और फिर मात्रानुसार घी मिश्रित कुनकुना यवागू उसे पिलाना चाहिए। इसी आयुर्वेदोक्त मत के अनुसार संघदासगणी ने पिप्पलाद की उत्पत्ति की कथा (पृ. १५२ ) के प्रसंग में लिखा है कि आसन्नप्रसवा सुलसा के प्रसव का सम निकट जानकर नन्दा घी लिये हुए वहाँ पहुँची। एक दूसरे प्रसंग में संघदासगणी ने यवागू-पान
१. हरिनैगमेषी देव ने ही भगवान् महावीर को गर्भावस्था में ब्राह्मणी के गर्भ से क्षत्रिया के गर्भ में अन्तरित किया था, ऐसी जैनश्रुति है । 'स्थानांग ' (१०.१६०) ने इसे दस महाश्चयों में परिगणित किया है।
२. अजाननश्चलाक्षिभू : कामरूपी महायशाः ।
बालं बालपिता देवो नैगमेषोऽभिरक्षतु ॥ उत्तरतन्त्र, ३६.११
३. भावप्रकाश, गर्भप्रकरण, श्लो. ३४४