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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ संघदासगणी ने कथाप्रसंगवश भोजन-विधि को विशेष मूल्य दिया है और बताया है कि पाकशास्त्र चिकित्साशास्त्र के अधीन है। दसवें पुण्ड्रालम्भ की कथा में इस बात का उल्लेख है कि वीणादत्त नन्द और सुनन्द नाम के दो रसोइयों को ले आया। इन दोनों के पिता राजा सुषेण के रसोइया रह चुके थे। इन्होंने वसुदेव के लिए जो भोजन तैयार किया था, वह आयुर्वेदशास्त्र के अनुकूल सुन्दर वर्ण, रस और गन्ध से सम्पन्न; हित, मित और पथ्य था। ये दोनों रसोइये पाकशास्त्री तो थे ही, चिकित्साशास्त्री भी थे । वसुदेव को उन्होंने अपने परिचय के क्रम में बताया था कि चूंकि पाकशास्त्र चिकित्साशास्त्र के अधीन है ("तिगिच्छायत्तं सूयं ति"; पृ. २११), इसलिए, उन्होंने पाकशास्त्र सीखने के सिलसिले में चिकित्साशास्त्र भी सीखा। वाग्भट ने भी भोजन की व्यवस्था में हित, मित और पथ्य आहार की महत्ता को स्वीकार किया है :
काले सात्म्यं शुचि हितं स्निग्धोष्णं लघु तन्मना: । षड्रसं मधुरप्रायं नातिद्रुतविलम्बितम् ॥
__ (अष्टांगहृदय : सूत्रस्थान : ८.३५) संघदासगणी द्वारा वर्णित आयुर्वेद के मूल सिद्धान्त प्राचीन आयुर्वेदशास्त्र का अनुसरण तो करते हैं, लेकिन उसके उपस्थापन में आयुर्वेद के सिद्धान्तकार की अपेक्षा अधिकांशतः उनका कथाकार का रूप ही उभरकर सामने आता है । जैसे, उन्होंने आयुर्वेद के भोजनविषयक सर्वसम्मत दो सिद्धान्त-सूत्रों को उपस्थित किया है : समय पर भोजन आरोग्यवर्द्धक होता है और मन या चित्त के अस्वस्थ रहने पर भोजन में अरुचि हो जाती है ("काले भुत्तं आरोग्गं करेइ"; "वक्खित्तमतिस्स न रोयए भोयणं"; पृ. २१३); किन्तु इस विषय को रत्यात्मक और रोमांसप्रधान परिवेश में, भूतचिकित्सक के हाथों सौंप देने से उसका मनोरंजक कथातत्त्व ही प्रधान हो गया है और आयुर्वेद का सिद्धान्त गौण पड़ गया है। वसुदेव की स्वीयोक्ति में ही इस सन्दर्भ को देखें :
“उत्सव समाप्त होते ही मैं बीमार पड़ गया। नन्द-सुनन्द रसोइये ने भोजन तैयार किया और उनके हर तरह से आग्रह करने पर भी मुझे भोजन लेने की इच्छा नहीं हुई । अंशुमान्ने पूछा: “आपको क्या शारीरिक पीड़ा हो रही है? आप भोजन नहीं करना चाहते हैं, तो पथ्य आपके लिए ले आया हूँ।” मैंने कहा : 'जिन-जागरोत्सव में जिस (पुरुषवेशधारी) स्त्री के साथ मैं संगीत प्रस्तुत कर रहा था, मेरा हृदय उसी के साथ चला गया। उसके साथ समागम की आतुरता की मनःस्थिति के कारण मुझे भोजन में रुचि नहीं रह गई है।" _____ मेरी यह बात सुनकर अंशुमान् बोला : “आर्यज्येष्ठ ! वह तो राजा है (स्त्री नहीं), और आप दूसरे के वश में होकर कैसी अयुक्त बात करते हैं ? लगता है, किसी भूत से आप आविष्ट हो गये हैं।" यह कहकर वह बाहर निकल गया। फिर थोड़ी ही देर में अपने साथ कतिपय भूतचिकित्सकों को लेकर आया और रोते हुए उसने उनसे कहा कि 'आर्यज्येष्ठ के शरीर में किसी प्रकार की पीड़ा न हो, ऐसी दयापूर्ण चिकित्सा का उपाय आप सोचें ।'
भूतचिकित्सकों ने अंशुमान् से कहा : “राजपुत्र ! अकारण आप दुःखी मत हों । हम जो होम, अंजन, पान आदि की क्रिया करेंगे, उसे आपके आर्यज्येष्ठ वहाँ रहकर भी, नहीं देख सकेंगे।" मैंने अंशुमान् और भूतचिकित्सकों के बीच चलनेवाली यह बातचीत सुनी, तो अंशुमान् को डाँटा,