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१८० ___ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा मिलते हैं। 'करण' की चर्चा करके संघदासगणी ने, गणित ज्योतिष के प्रति आग्रही न होते हुए भी, महत्त्वपूर्ण भारतीय गणित ज्योतिष की ओर संकेत तो अवश्य ही कर दिया है। किन्तु, फलित ज्योतिष के ज्ञान के लिए तिथि, नक्षत्र, वार योग और मुहूर्त के अतिरिक्त करण की जानकारी आवश्यक है, इसलिए फलित ज्योतिष के सिद्धान्तों के विवरण के क्रम में संघदासगणी ने करण की चर्चा करके फलित ज्योतिष के सैद्धान्तिक सन्दर्भो को ही प्रासंगिकता प्रदान की है।
तिथि: 'बहुचब्राह्मण' में तिथि का लक्षण इस प्रकार है : 'यां पर्यस्तमियादभ्युदयादिति सा तिथि: ।' अर्थात्, जिसमें चन्द्रमा उगता है और अस्त होता है, उसे तिथि कहते हैं। इस लक्षण के अनुसार, चान्द्र मास में तीस तिथियाँ न होकर कमी-बेशी होती रहती है। मतान्तर में, सूर्य के उदयास्त के आधार पर भी तिथियों का निर्धारण होता है, जिससे सौर मास में सूर्योदयव्यापिनी तिथियों की गणना होती है। इसमें प्राय: तीस तिथियाँ होती हैं। सौर मास में क्रमश: बारह महीनों में मेष, वृष आदि बारह राशियों में सूर्य संक्रान्त होते हैं । विवाह आदि में सौर मास और यज्ञ
आदि में सावन या चान्द्रमास की गणना होती है। 'मुहूर्त्तचिन्तामणि' के रचयिता राम दैवज्ञ ने लिखा भी है : “विवाहादौ स्मृत: सौरो यज्ञादौ सावन: स्मृत: ।” ज्योतिषशास्त्र के अनुसार, चन्द्र
और सूर्य के अन्तरांशों पर से तिथि का मान निकाला जाता है। प्रतिदिन बारह अंशों का अन्तर सूर्य और चन्द्रमा के भ्रमण में होता है. यही अन्तरांश का मध्यम मान है। अमावस्या के बाद प्रतिपदा से पूर्णिमा तक की तिथियाँ शुक्लपक्ष की और पूर्णिमा के बाद प्रतिपदा से अमावस्या तक की तिथियाँ कृष्णपक्ष की होती हैं। ज्योतिषशास्त्र में तिथियों की गणना शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होती है । वर्षारम्भ भी चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा से ही होता है । ये तिथियाँ नन्दा (प्रतिपदा, षष्ठी, एकादशी), भद्रा (द्वितीया, सप्तमी, द्वादशी), जया (तृतीया, अष्टमी, त्रयोदशी), रिक्ता (चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी) और पूर्णा (पंचमी, दशमी और पूर्णिमा) इन पाँच नामों से संज्ञित और वर्गीकृत हैं।
नक्षत्र : कई ताराओं के समुदाय को नक्षत्र कहते हैं। 'अथर्वसंहिता" में कहा गया है कि "विश्वदर्शी सूर्य के आते ही नक्षत्र और रात्रि चोर की तरह भाग जाते हैं।" इस वाक्य में तारों को नक्षत्र कहा गया है। आकाशमण्डल की दूरी नक्षत्रों से ज्ञात होती है। समस्त आकाशमण्डल को ज्योतिर्विज्ञान ने सत्ताईस विभागों में व्यवस्थित करके प्रत्येक भाग का नाम नक्षत्र रखा है। अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती ये सत्ताईस नक्षत्र हैं। अभिजित् को अट्ठाईसवाँ नक्षत्र माना गया है। ज्योतिर्विदों की गणना के अनुसार, उत्तराषाढ़ा की अन्तिम पन्द्रह घटियाँ और श्रवणा की प्रारम्भिक चार घटियाँ, इस प्रकार उन्नीस घटियों का मानवाला अभिजित् नक्षत्र होता है । सूक्ष्मता से समझने के लिए ये नक्षत्र सात-सात के समूहों(७ x ४ = २८) में चार चरणों में विभक्त हैं।
वार : 'ऋक्संहिता में वारों को सामान्यत: 'वासर' कहा गया है। सायणाचार्य ने 'वासर' का अर्थ 'दिवस' किया है। जिस दिन की प्रथम होरा (घण्टा) का जो ग्रहस्वामी होता है, उस दिन १. अप त्ये तावयो यथानक्षत्रा यन्त्युक्तिभिः । सूरायविश्वचक्षसे ।- अथर्वसंहिता, १३ ।२।१७ । २. आदिप्रलस्य रेतसो ज्योतिष्पश्यन्ति वासरम् । परोयदिध्यते दिवा । ऋक्संहिता : ८.६.३०