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वसदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
१६५ उसके माता-पिता ने यह कहकर आश्वस्त कियाः “बेटी ! सन्ताप छोड़ो ! तुम्हारे पास तो विद्याएँ हैं। उनकी आवृत्ति (जप) करके अपने स्वामी का समाचार प्राप्त करो।” यहाँ अवश्य ही पूर्वोक्त 'आभोगिनी' विद्या की ओर संकेत है।
सर्पविद्या (पृ. २५४) : इस विद्या में विषैले साँपों का विष उतारने की शक्ति थी। गारुडिक (सर्पवैद्य) इसका प्रयोग बड़ी सफलता से करते थे। सोलहवें बालचन्द्रालम्भ की कथा है कि महादानी राजा सिंहसेन एक दिन भवितव्यता से प्रेरित होकर भाण्डार में घुसा और ज्योंही रत्नों पर दृष्टि डाली, त्योंही रत्न पर बैठे 'अगन्धन' नामक भयंकर सर्प ने उसे डंस लिया। साँप भाग गया। राजा के शरीर में विष फैलने लगा। सर्पवैद्य उपचार करने में जुट गये। गरुडतुण्ड नामक गारुडिक ने साँपों को बुलाया। जो साँप अपराधी नहीं थे, उन्हें तो विदा कर दिया, किन्तु 'अगन्धन' सर्प खड़ा रहा। गारुडिक ने विद्याबल से 'अगन्धन' सर्प को राजा के शरीर से विष चूसने को प्रेरित किया। परन्तु अतिशय मान के कारण वह सर्प विष चूसने को तैयार नहीं हुआ। तब, गारुडिक ने उसे जलती हुई आग में डाल दिया।
महाजालविद्या (महाजालिनी विद्या) : इस विद्या में सभी प्रकार की विद्याओं के छेदन की शक्ति होती थी। इक्कीसवें केतुमतीलम्भ (पृ. ३१८) में उल्लेख है कि राजा अशनिघोष को विद्या में अधिक प्रौढ जानकर उसका प्रतिद्वन्द्वी राजा अमिततेज सभी विद्याओं का छेदन करनेवाली - महाजालविद्या की साधना के लिए तैयारी करने लगा। उसी क्रम में वह अपने ज्येष्ठ पुत्र सहस्ररश्मि
के साथ हीमन्त पर्वत पर गया। वहाँ भगवान् संजयन्त और नागराज धरण की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित थीं। उन्हीं के चरणप्रान्त में वह मासिक भक्त (उपवास) और साप्ताहिक प्रतिमा (व्रत) द्वारा विद्या की आराधना करने लगा और सहस्ररश्मि उसकी देखरेख में तत्पर रहने लगा। इस प्रकार, अमिततेज का विद्या के लिए साधना का योग चलने लगा।
इधर अशनिघोष ने अपने युद्धजयी पुत्रों के साथ मिलकर श्रीविजय (अमिततेज का बहनोई, रानी सुतारा का पति, जिसे अशनिघोष ने हर लिया था) पर आक्रमण कर दिया। अशनिघोष को अनेक विद्याएँ सिद्ध थी : श्रीविजय ने जब अशनिघोष के दो टुकड़े कर डाले, तब दो अशनिघोष हो गये। उनके दो-दो टुकड़े करने पर चार अशनिघोष हो गये । इस प्रकार अशनिघोषों की संख्या बढ़ती चली गई और श्रीविजय विस्मित होकर प्रहार करते-करते थक गया। इसी बीच अमिततेज की महाजालिनी विद्या सिद्ध हो गई। महाप्रभावशाली सिद्धविद्य अमिततेज को देखकर अशनिघोष के मन में डर पैदा हो गया। इसलिए, वह अपनी सेना को छोड़कर भाग गया और उसके पक्षधर प्रायः सभी विद्याधर भी चारों ओर भाग चले। कथाकार द्वारा वर्णित इस अशनिघोष की प्रतिरूपता 'दुर्गासप्तशती' में वर्णित रक्तबीजासुर से परिलक्षित होती है। कथा है कि रक्तबीज के जितने ही रक्तबिन्दु गिरते थे, उतनी ही संख्या में रक्तबीज उत्पन्न हो जाते थे।
तब, अमिततेज ने, जो विद्याधर नहीं भाग रहे थे, उनपर भीषण आक्रमण करने का आदेश देकर महाजालविद्या को भेजा। महाजालविद्या से मोहित (वशीभूत) सभी विद्याधर-शत्रु निरुपाय होकर अमिततेज की शरण में आ गिरे।
विद्यामुखी : यह विद्या शत्रु का पीछा करने के लिए प्रेरित की जाती थी। जब अशनिघोष भाग गया, तब अमिततेज ने उसे न छोड़ने की आज्ञा देकर विद्यामुखी विद्या को भेजा । विद्यामुखी