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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
१६३ (प्रा. उप्पय-निप्पयणीओ) कहा गया है। छठे, मित्रश्री-धनश्रीलम्भ का प्रारम्भ ही इस विद्या की चर्चा से हुआ है। वसुदेव के ही मुख से इस प्रसंग का आस्वाद लें : ___“एक दिन गिरिकूट ग्राम के बाहर मैंने ऐन्द्रजालिक को देखा। उसने बरगद पर रहनेवाले नागकुमारों को दिखलाया। मैंने सोचा : यह विद्याधर किसी कारण से ही यहाँ आया है। इसके साथ मेल करना चाहिए। फिर, वह ऐन्द्रजालिक मुझे बुध और विबुध के मन्दिर में दिखाई पड़ा। वह मुझे बड़े आदर से निहार रहा था। मैंने पहचान लिया कि यह विद्याधर ही है। मैंने उससे पूछा : 'कहो, किसलिए आये हो? क्या कर रहे हो?' मेरी बात सुनकर वह मुझे एकान्त में ले जाकर कहने लगा : 'सचमुच, मैं विद्याधर ही हूँ। मेरे पास शुम्भा और निशुम्भा नाम की ऊपर उड़ने और नीचे उतरने की दो सुखसाध्य विद्याएँ हैं। उन्हें मैं तुम्हें देता हूँ। तुम उसके पात्र हो । पूजा के विधान की सारी वस्तुएँ मैं जुटा लूँगा। तुम काल (कृष्ण) चतुर्दशी के दिन अकेले मुझसे मिलो। एक हजार आठ बार आवृत्ति करने से विद्या सिद्ध हो जायगी।' मैंने विद्याधर की बात मान ली और चतुर्दशी के दिन उपवास करके विद्याएँ ग्रहण की।" ___ संघदासगणी ने इस इन्द्रजाल-विद्या की दूसरी संज्ञा 'आवर्तनी' और 'निवर्तनी' भी दी है, साथ ही इसके सिद्ध करने की विधि की ओर भी संकेत किया है। वसुदेव ने अपनी आत्मकथा को आगे बढ़ाते हुए कहा: - "इसके बाद मैंने (पत्नी) सोमश्री से कहा : 'मैंने एक नियम ले रखा है, इसलिए मन्दिर में वास करूँगा।' फिर, सोमश्री से अनुमत होकर और इस बात को किसी से न कहने की चेतावनी देकर मैं सन्ध्या में निकल गया। विद्याधर मुझे पहले पहाड़ की गुफा में ले गया, फिर वहाँ से हम खड़ी चोटीवाले पहाड़ों से भरे प्रदेश में पहुँचे। पूजा की विधि समाप्त की गई। उसके बाद विद्याधर ने मुझसे कहा : 'विद्या की आवृत्ति करो। एक हजार आठ आवृत्ति पूरी होते ही विमान उतरेगा और तुम उसमें नि:शंक चढ़ जाना। विमान जब सात-आठ तल ऊपर पहँच जायगा, तब तुम निवर्तनी (निपतनी) विद्या की, इच्छा के अनुसार, आवृत्ति करना । विमान नीचे उतर आयगा। मैं तुम्हारी रक्षा के निमित्त निकट में ही थोड़ी दूर पर रहूँगा।' यह कहकर विद्याधर चला गया।"
विद्या का चमत्कार भी वसुदेव को प्रत्यक्ष दिखाई पड़ा, किन्तु वह तो सही मानी में ऐन्द्रालिक के इन्द्रजाल का चमत्कार या छलावा था। अतिशय साहसी पुरुष वसुदेव की कटु अनुभूति का आस्वाद उनके ही मुख से लें :
"मैं एकचित्त होकर विद्या का जप करने लगा। जप पूरा होते ही विमान उतरा। उसमें घण्टे लगे हुए थे, जिनसे रंनरनाहट हो रही थी और विमान में विविध फूलों की सुरभिपूर्ण मालाएँ लटक रही थीं। उसके बीच में आसन था। मैंने सोचा : 'मेरी विद्या सिद्ध हो गई। मुझे विमान पर चढ़ जाना चाहिए।' मैं विमान में जा बैठा। विमान धीरे-धीरे ऊपर उठने लगा। थोड़ा ऊपर उठने पर मैंने अनुमान किया, विमान पर्वत-शिखर की बराबरी में उड़ रहा है। इसके बाद एक दिशा की
ओर विमान उड़ चला। फिर, मुझे ऐसा लगा, जैसे विमान ऊबड़-खाबड़ प्रदेश में स्खलित होता हुआ चल रहा है । मेरे मन में चिन्ता हुई : 'विमान कहीं पर्वत की दीवार पर तो नहीं चल रहा है; क्योंकि यह ऊपर-नीचे लड़खड़ाता चल रहा है। सम्भव है, विद्याधर का कोई प्रयोग हो।' यह सोचकर मैं आवर्तनी (निपतनी) विद्या का जप करने लगा। फिर भी, विमान आगे ही बढ़ता चला