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वसदेवहिण्डी:भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा सुतारा को वापस करने से इनकार कर दिया, तब राजा अर्ककीर्ति के पुत्र अमिततेज ने अपने बहनोई श्रीविजय की ओर से युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। इसी क्रम में अमिततेज ने श्रीविजय को उक्त दोनों विद्याएँ दीं। श्रीविजय ने प्रत्येक विद्या को सात रात तक जप करके सिद्ध किया।
पत्रलघुकिका (श्यामलीलम्भ : पृ. १२५) : (क) इस जादू-विद्या से शरीर को पत्ते की भाँति हल्का कर लेने की शक्ति प्राप्त होती थी। वसुदेव ने इस विद्या को भी सरकण्डे के जंगल में ही सिद्ध किया था और उसे अपनी पत्नी श्यामली को सिखाया था। __(ख) केतुमतीलम्भ (पृ. ३२८) में भी पत्रलघु-विद्या की चर्चा आई है। एक दिन त्रिपुराधिपति विद्याधर वीरांगद ने अशोकवाटिका से पूर्वभारतवर्ष के नन्दनपुर के राजा महेन्द्र की दो पुत्रियोंकनकश्री और धनश्री को अपहत कर लिया। वीरांगद की पत्नी वज्रश्यामलिनी ने भीमाटवी में उन बेचारी दोनों बहनों को मुक्त करा दिया। फिर, उसने दोनों बहनों में पत्रलघु-विद्या संक्रान्त कर दी, जिससे वे, पत्ते की तरह शरीर के हल्का हो जाने के कारण, उड़ती हुई वेणुवन में बाँस की झाड़ी पर जा गिरी और वहाँ अनशन करके कालगत हुईं। उसके बाद कनकश्री इन्द्र की नवमिका नाम की अग्रमहिषी हुई और धनश्री कुबेर की पत्नी बनी।
आकाशगामिनी : इस विद्या के चमत्कार से पूरी 'वसुदेवहिण्डी' की कथावस्तु ओतप्रोत है। विभिन्न प्रकार से रूपों का परिवर्तन विद्याधरियों के लिए सहज साध्य था। ये अपनी इच्छा के अनुसार रूप धारण करनेवाली, सुर-सुन्दरियों को भी विस्मित करनेवाली और चिरकालवर्णनीय लक्षण-गुणों से सम्पन्न शरीरवाली थीं। ये स्वयं आकाश में तो उड़ती ही थीं, दूसरों को भी उड़ा ले जाती थीं और आकाशमार्ग से जाकर, पलभर में कार्य करके वापस चली आती थीं। ये अन्तरिक्ष में ही खड़ी होकर मर्त्यवासियों से बात करने में समर्थ थीं। श्रमणों को भी आकाशगमन की विद्या सिद्ध थी। विद्याधर आकाशगमन आदि सभी विद्याएँ जानते थे और जब वे किसी को विद्याएँ प्रदान करते थे, तब उनकी साधन-विधि भी बतला देते थे। आकाशगमन की शक्ति से सम्पन्न विद्याधर अपराजेय होते थे, इसीलिए उनसे सभी डरते थे। विद्याधर प्राय: 'सविद्य' होते थे और मनुष्य ‘अविच्छ' । 'अविद्य' मनुष्य जब ‘सविद्य' हो जाते थे, तब विद्याधर संकटकाल में बराबर उसकी सहायता के लिए तत्पर रहते थे। आकाशगमन की विद्या से युक्त दमितारि विद्याधर से पराजित होने का भय राजा आन्तवीर्य और अपराजित को बराबर सताया करता था। इसलिए, उन्होंने पूर्वगृहीत विद्याओं को, जिनमें आकाशक्यिा भी सम्मिलित थी, सिद्ध करने का निश्चय किया, तभी संयोगवश पूर्वभव की विद्याएँ वहाँ उपस्थित हो गई (केवुमतीलम्भ : पृ. ३२५) ।'
१. कौटिल्य के अर्थशास्त्र (१४.३) में भी आकाशगामी मन्त्र और उसकी रोचक प्रयोग-विधि का उल्लेख है।
आकाशगामी मन्त्र प्रस्वापन आदि (यद्यपि, केवल प्रस्वापन के और भी कई मत्र और उनकी विचित्र प्रयोग-विधियां है) मन्त्रों के समान है। मन्त्र है :
'उपैमि शरणं चाग्नि दैवतानि दिशो दश ।
अपयान्तु च सर्वाणि वशतां यान्तु मे सदा ॥ स्वाहा।' इस मन्त्र की प्रयोग-विधि इस प्रकार है : चार रात तक उपवास करने के बाद कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को किसी भग्न पुरुष की हड्डी से बैल की मूर्ति बनाये और उसे उक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित करे। ऐसा करने से दो बैलों से जुती हुई गाड़ी वहां उपस्थित हो जाती है। उसके द्वारा (वह साधक) आकाश में चंक्रमण करता है।