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________________ अध्ययन : ३ 'वसुदेवहिण्डी' की पारम्परिक विद्याएँ भारतीय प्राचीन वाङ्मय में विद्याओं और उपविद्याओं की अनेकशः चर्चा आई है । संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य की गणना विद्या में और कलाओं की गणना उपविद्या में की गई है । इसीलिए, आचार्य भरत ने नाटकों में सभी कलाओं के समुच्चय की स्थिति की चर्चा करते हुए विद्या और कला की अलग-अलग गणना की है।' ऐसी गणना इसलिए की गई है कि विद्या ज्ञानात्मक है और कला या उपविद्या क्रियात्मक । शैवतन्त्र और वात्स्यायन के 'कामसूत्र' में चौंसठ कलाओं की सूची प्राप्त होती है, जबकि जैनतन्त्र में बहत्तर कलाएँ स्वीकृत हैं। 'समवायांगसूत्र' के अनुसार, 'लेख' से प्रारम्भ करके 'शकुनरुत' - पर्यन्त बहत्तर कलाओं की गणना की गई है। इनमें अड़तालीसवीं कला का नाम 'विद्यागत' है। डॉ. हीरालाल जैन ने इस विद्या को मन्त्र-तन्त्र से सम्बद्ध बताया है और कहा है कि इस विद्या द्वारा अपना और अपने इष्ट जनों का इष्टसाधन और शत्रु का अनिष्ट साधन किया जा सकता है।' 'ललितविस्तर' में छियासी कलाओं की चर्चा है । इनमें भी अड़तालीसवीं कला का नाम 'मायाकृत' (इन्द्रजाल) है। वात्स्यायन ने 'कामसूत्र' में जिन चौंसठ कलाओं का उल्लेख किया है, उनमें बीसवीं कला 'इन्द्रजाल' है, जो जादू के अद्भुत खेलों से सम्बन्ध रखती है । 'वसुदेवहिण्डी' में अनेक प्रकार की पारम्परिक विद्याओं की चर्चा के क्रम में इन्द्रजाल-विद्या का भी भूरिशः वर्णन किया गया है । यथावर्णित विद्याओं में इन्द्रजाल या मायाकृत विद्या के विभिन्न प्रकार की विवृति इस प्रकार है : स्तम्भिनी (कथोत्पत्ति : पृ. ७) : जडीकृत या स्थावर बना देनेवाली प्रस्तुत इन्द्रजाल-विद्या को जम्बूस्वामी ने जयपुरवासी विन्ध्यराज के ज्येष्ठ पुत्र, चौर्यवृत्तिजीवी प्रभव के चोर साथियों के लिए प्रयुक्त किया था । फलतः जम्बूस्वामी के घर में चोरी करते हुए चोरों का स्तम्भन (मूर्त्तिवत् गतिहीन स्थिति) हो गया था । अंगारक और श्यामली ( वसुदेव की पत्नी) दोनों भाई-बहन थे । श्यामली के वसुदेव से विवाह कर लेने पर अंगारक को बड़ा नागवार गुजरा। वह वसुदेव का प्रतिद्वन्द्वी हो गया । एक दिन श्यामली के साथ वसुदेव सोये थे कि अंगारक उन्हें हर ले चला । मुखाकृति से उन्होंने पहचान लिया कि यह श्यामली का भाई अंगारक है । उसपर ज्योंही उन्होंने प्रहार करना चाहा, त्योंही अंगारक ने स्तम्भिनी विद्या का प्रयोग कर दिया । वसुदेव का सारा शरीर स्तम्भित हो गया और अंगारक ने उन्हें ऐसा फेंका कि वे घास-फूस से भरे पुराने कुएँ में जा गिरे। पति के विनाश के भय से श्यामली अपने भाई अंगारक से भिड़ गई। वसुदेव कुएँ में पड़े-पड़े भाई-बहन का युद्ध देखते रहे । अन्त में, वसुदेव निरुपसर्ग होने के लिए कायोत्सर्ग कर ही रहे थे कि स्तम्भिनी विद्यादेवी हँसकर अदृश्य हो गई और वसुदेव कुएँ से बाहर निकल आये (श्यामली- लम्भ : पृ. १२५-१२६) । १. न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला । न संयोगो न तत्कर्म यन्नाट्येऽस्मिन्न दृश्यते ॥ - नाट्यशास्त्र, १.११६ २. 'भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान' (संस्करण, सन् १९६२ ई), पृ. २८९ ३. विभिन्न कलासूचियों के विशिष्ट विवरण के लिए द्रष्टव्य : 'कला-विवेचन' : डॉ. कुमार विमल, पृ. २९-४०
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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