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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा 'वसुदेवहिण्डी' की मिथक-कथाएँ न केवल लौकिक हैं और न ही अलौकिक, अपितु वे लौकिकालौकिक हैं । संघदासगणी ने मिथक-कथाओं की असामान्यता को सामान्यीकृत करके उन्हें फिर असामान्य बना दिया है, इसलिए वे कथाएँ केवल सामान्य या असामान्य न होकर सामान्यासामान्य बन गई हैं और इस प्रकार वे मूल इतिहास की विकृति से उत्पन्न अतिप्राकृत पात्रों और चमत्कारपूर्ण घटनाओं के रूप में परिणत हो गई हैं। जातीय जीवन को प्रभावित करनेवाली असाधारण महत्त्व की ये घटनाएँ और इनके पात्र स्वभावत: मिथिक अभिप्रायों से युक्त हो गये हैं। क्योंकि, प्राकृतिक या अतिप्राकृतिक घटनाओं की रूपकात्मक या कथात्मक अभिव्यक्ति ही मिथकीय चेतना की आधारभूमि है।
मिथक-कथा की कल्पनाएँ या घटनाएँ सत्यास्थित होते हुए भी सत्य नहीं होतीं। उनकी स्थिति सत्यासत्य की होती है। डॉ. दिनेश्वर प्रसाद ने पौरस्त्य और पाश्चात्य धारणाओं के परिप्रेक्ष्य में 'मिथ' की गम्भीर विवेचना करते हुए लिखा है कि “मिथ और सत्य एक दूसरे के विपरीत हैं; क्योंकि यदि मिथ द्वारा प्राप्त समाधान सत्य प्रमाणित हो जाय, तो वह मिथ नहीं रह जाता।... यह सत्य एक ओर विज्ञान के सत्य से भिन्न है, तो दूसरी ओर इतिहास के सत्य से। इसमें जिन घटनाओं का विवरण मिलता है, यह आवश्यक नहीं कि उन घटनाओं की किसी सुदूर या निकटवर्ती अतीत की वास्तविक घटनाओं से पूर्ण या आंशिक अनुरूपता हो और इस प्रकार जिनका मूल, इतिहास में प्रमाणित किया जा सके। दैनन्दिन जीवन के आनुभविक यथार्थ से भी उनकी संगति का अन्वेषण कठिन है। और, यह कठिनाई इसलिए उपस्थित होती है कि मिथक-कथा में लौकिक पात्रों के जीवन की कहानी अतिलौकिक पात्रों द्वारा प्रभावित होती है। मानव की बुद्धि अतिलौकिक भावों और वस्तुओं की कल्पना और अनुभूति में जब पराजित या असमर्थ हो जाती है, उसी स्थिति में 'मिथ' का जन्म होता है।
संघदासगणी द्वारा ऋषभस्वामी-चरित के चित्रण के क्रम में विश्व की सृष्टि और उसके विकास की जो कथा (नीलयशालम्भ : पृ. १५७) उपन्यस्त की गई है, वह मिथकीय मूलचेतना का विषय है। इसलिए फ्रांज बोआज ने कहा है कि मिथिक धारणाएँ विश्व के संघटन और उत्पत्तिविषयक मूलभूत विचार हैं। कहना न होगा कि मानव-अस्तित्व का मूल स्वभाव ही मिथक-बोध से संवलित है.। ज्ञातव्य है कि विश्व आरम्भ से ही मिथिक और वैज्ञानिक, इन दो भिन्न, किन्तु परस्पर पूरक स्तरों पर अवगम्य रहा है । वस्तुओं का भावात्मक या कल्पनात्मक साक्षात्कार मिथिक स्तर है, तो विविक्तीकरण और सिद्धान्त-निरूपण वैज्ञानिक स्तर । मिथिक प्रक्रिया अहन्ता-प्रधान है और वैज्ञानिक प्रक्रिया इदन्ता-प्रधान । मिथ और विज्ञान, ये दोनों वस्तुसत्ता के अवबोध की समान्तर, समरूप और संगत विधियाँ हैं। संघदासगणी ने अपनी कतिपय मिथक-कथाओं में वैज्ञानिक तत्त्वों
की ओर भी संकेत किया है, जिससे स्पष्ट है कि वह अपनी मिथकीय चेतना में वैज्ञानिक बोध . को भी संवेगों से अनुरंजित करके उपन्यस्त करने में निपुण थे। ऐसा प्रतीत होता है कि वह
१. द्र. 'काव्यरचना-प्रक्रिया' नामक संकलन-ग्रन्थ (डॉ. कुमार विमल द्वारा सम्पादित) में डॉ. दिनेश्वर प्रसाद का _ 'काव्य-रचना-प्रक्रिया और मिथ' शीर्षक लेख.प.१०१