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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा लकड़ी से आविर्भूत अग्नि में हवनकार्य सम्पन्न किया। इस प्रकार, दिक्कुमारियाँ रक्षाकार्य पूरा करने के बाद माता-पुत्र को जन्मभवन में लिवा लाईं और मंगलगीत गाती हुई खड़ी रहीं।
उसी समय देवराज इन्द्र परिवार-सहित ज्योतिर्मय 'पालक' विमान से तीर्थंकर की जन्मभूमि में पधारे और उन्होंने जिनमाता मरुदेवी की वन्दना करके, उसे अवस्वापिनी विद्या से सुला दिया
और उसके पार्श्व में कुमार का प्रतिरूप विकुर्वित कर रख दिया, ताकि मरुदेवी विश्वस्त भाव से सोई रहे। उसके बाद इन्द्र जिन भगवान् को आदर-सहित अपने पँचरंगे कर-कमल के बीच अच्छी तरह रखकर, मन्दराचल के शिखर की भाँति, दक्षिण दिग्भाग में प्रतिष्ठित पर्वतविशेष के शिखर की 'अतिपाण्डुकम्बलशिला' पर क्षणभर में ही ले गये। वहाँ उन्होंने जिनदेव को शाश्वत सिंहासन पर बैठाया और स्वयं खड़े रहे। चतुर्विध देव (वैमानिक, ज्योतिष्क, भवनपति और व्यन्तर) जिन भगवान् के निकट जाकर वन्दना करने लगे।
तदनन्तर, अच्युतेन्द्र (११३-१२वें देवलोक के स्वामी इन्द्रविशेष) ने परितुष्ट होकर विधिपूर्वक क्षीरोदसागर के जल से पूर्ण साठ हजार स्वर्णकलशों से जिनेन्द्र को स्नान कराया। उसके बाद क्रम से सौषधिमिश्रित जल और तीर्थों के जल से भी अभिषेक कराया। लोकनाथ तीर्थंकर के अभिषेक के समय देव प्रसन्न मन से रत्न, मणि और फूलों की वर्षा करने लगे। अच्युतेन्द्र ने स्नान कराने के बाद तीर्थंकर को वस्त्र एवं आभूषणों से अलंकृत किया। फिर उसने स्वस्तिक लिखे
और अतिशय सुगन्धियुक्त धूप जलाया, फिर श्रुतिमधुर स्वरों में स्तुति करके पर्युपासना में लग गया। इसके बाद अनेक इन्द्रों ने भी तीर्थंकर की सादर पूजा-वन्दना की। तदनन्तर देवराज इन्द्र पूर्वविधि से क्षणभर में तीर्थंकर को उनकी माता मरुदेवी के समीप ले आये। प्रतिरूप पुत्र के हटते ही मरुदेवी की नींद खुल गई और इन्द्र ने 'जय' शब्द का उच्चारण किया। __उसके बाद सुरपति ने एक जोड़ा रेशमी वस्त्र और कुण्डल सिरहाने में रख दिया और सर्वविघ्नशमनकारी श्रीसम्पन्न फूल की मालाएँ भवन की छत से लटका दीं। फिर, विपुल रत्नराशि देकर तथा भविष्य में रक्षा के निमित्त अपनी सेवा अर्पित करने की घोषणा करके इन्द्र अपने लोक में चले गये। शेष देव भी जिनेन्द्र के प्रणाम से पुण्य-संचय अर्जित करके अपने-अपने स्थान के लिए विदा हो गये।
__ अनेक कथारूढ़ियों से संकुल प्रस्तुत मिथक-कथा एक ओर लौकिक विश्वासों से व्याप्त है, तो दूसरी ओर इसमें धार्मिक विश्वास का विपुल विनियोग भी हुआ है। अनेक धार्मिक और पारम्परीण अनुसरणशील बिम्बों के गुच्छ से आच्छादित इस मिथक-कथा में मानवेतर-विशेषतया देवताओं के चरित्र और कार्यकलाप चित्रित हुए हैं। इसके अतिरिक्त, इसमें मिथ्यातत्त्व की अधिकता
और समाज की मौखिक परम्पराओं से सम्बद्ध रहने की प्रवृत्ति भी स्पष्ट है, साथ ही कपोल-कल्पना के तत्त्वों का भी प्राचुर्य है। धर्म-भावना और पौराणिक दृष्टि पर निर्भर होने के कारण इस मिथक-कथा में प्रागैतिहासिकता के तत्त्व भी समाविष्ट हैं, साथ ही मिथ के, पुनीत संस्कृति की आधारभूमि होने के कारण इस कथा के पात्र, घटनाएँ, देश और काल सभी पुनीत हैं। इस कथा में जादुई सम्मोहन और मानवीय भोलेपन की कान्त मैत्री की मनोरमता का भी अपना माधुर्य है। इसके अतिरिक्त ऋषभस्वामी के नाभिनाल को काटने और उसे गाड़ने आदि जातकर्म के संस्कारों में लोकतत्त्वों का विनियोग भी द्रष्टव्य है।