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वसदेवहिण्डी:भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
संग्रह' के अनुसार, विद्याधरनरेश नरवाहनदत्त से गन्धर्वदत्ता का विवाह नहीं होगा, तो किससे होगा? इसी प्रकार, नीलयशालम्भ में, नीलकण्ठ विद्याधर के, विद्या के बल से मयूरशावक का रूप धारण करने और अपनी पीठ पर नीलयशा को बैठाकर उड़ा ले जाने की सम्भावना भी अस्वाभाविक नहीं हैं। पुन: इक्कीसवें केतुमतीलम्भ में, सुरूप यक्ष के, राजा मेघरथ को धर्म से विचलित कराने के लिए, कबूतर और बाज पक्षियों के शरीर में मनुष्यभाषी के रूप में अनुप्रविष्ट होने की सम्भावना भी निराधार नहीं है।
इस प्रकार, सम्भावना-पक्ष पर जोर देने के कारण, बहुत-सी कथानक-रूढियाँ भारतीय साहित्य में प्रचलित हुईं, जिनका स्वीकरण 'बृहत्कथा' के जैन नव्योद्भावक संघदासगणी के लिए भी, अपनी अद्भत कथा के प्रपंच-विस्तार के क्रम में अनिवार्य हो उठा। इस प्रकार की रूढियाँ न केवल काव्य और कथाक्षेत्र में, अपितु सम्पूर्ण कला-जगत्-मूर्ति, चित्र, संगीत और स्थापत्य—में भी स्वीकृत हुई हैं। इस प्रकार, ये रूढ़ियाँ मूलत: कला-रूढियाँ ही हैं। लोककलाओं—लोककाव्य, लोककथा, लोकनृत्य, लोकसंगीत, लोकचित्र आदि में भी स्वतन्त्र रूप से अनेक रूढियाँ अथवा परम्परागत विशिष्ट प्रणालियाँ होती हैं, जिनकी पुनरावृत्ति में शैलियों का नूतन विकास अन्तर्निहित रहता है।
पाश्चात्य दृष्टि के आलोचकों ने कथानक रूढि को 'फिक्सन मोटिव' का पर्याय माना है। पाश्चात्य समीक्षक टी. शिप्ले ने रूढि या अभिप्राय (मोटिव) का तात्पर्य बतलाते हुए लिखा है कि 'मोटिव' शब्द से तात्पर्य उस शब्द या विचार से है, जो एक ही साँचे में ढले जान पड़ते हैं और किसी कृति या एक ही व्यक्ति की भिन्न-भिन्न कृतियों में एक जैसी परिस्थिति या मन:स्थिति और प्रभाव उत्पन्न करने के लिए एकाधिक बार प्रयुक्त होते हैं। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने, आचार्य द्विवेदी के विचारों के परिप्रेक्ष्य में कथानक-रूढि का विश्लेषण करते हुए, कहा है कि कथानक-रूढि का अर्थ है-कथा में बार-बार प्रयुक्त होनेवाले ऐसे अभिप्राय, जो किसी छोटी घटना (इन्सीडेण्ट) या विचार (आइडिया) के रूप में कथा के निर्माण और विकास में योग देते हैं । जनसामान्य के विचार या लोकविश्वास पर आधृत इन रूढियों का वैज्ञानिक दृष्टि से कोई विशेष महत्त्व नहीं होता। ___ ज्ञातव्य है कि सभी कथारूढियाँ निरर्थक नहीं होतीं। कुछ ऐसी भी रूढियाँ हैं, जिन्हें बिलकुल असत्य नहीं कहा जा सकता, इनमें कुछ तथ्यांश भी अवश्य रहता है, अर्थात् ये यथार्थ से भी सम्बद्ध रहती हैं। कथारूढियों के विश्लेषण से कथाओं के उपकरणों और तत्त्वों पर भी प्रकाश पड़ता है। किसी राजकुमारी को प्राप्त करने के लिए सात समुद्र पार जानेवाला राजकुमार सामान्य दृष्टि से भले ही असत्य हो सकता है, किन्तु कथातत्त्व की दृष्टि से वह अयथार्थ नहीं है। 'वसुदेवहिण्डी' जैसे शिष्ट या अभिजात कोटि के कथा-साहित्य में उपलभ्य कथानक-रूढियाँ मूलत: लोकसाहित्य या लोककथाओं की देन हैं। परम्परा-ग्रथित लोककथाओं से असम्बद्ध रूढ़ियाँ प्रायोविरल हैं। कथानक-रूढ़ियों के मूल उत्स के रूप में अनेक प्रकार के लोकाचारों, लोकविश्वासों
और लोकचिन्ताओं द्वारा उत्पन्न आश्चर्य से अभिभूत करनेवाली कल्पनाओं को भी स्वीकार किया जा सकता है। इन सबका उपयोग लौकिक एवं निजन्धरी कथाओं में निरन्तर होता रहा है।
१. डिक्शनरी ऑव वर्ल्ड लिटरेचर टर्म', पृ.२७४ २. 'हरिभद्र के प्राकृत-कथासाहित्य का आलोचनामत्मक परिशीलन', पृ. २६१