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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा या अन्य व्यक्ति ने कही है। इस महत्कथा में मुख्यकथा के साथ अवान्तर कथाओं की अन्विति का भी बड़ा निपुण निर्वाह हुआ है। इस प्रकार, साहित्यशास्त्रियों द्वारा निर्धारित कथादर्श की प्रतिज्ञा (थीसिस) पूरी करनेवाली कथाकृतियों में 'वसुदेवहिण्डी' स्वत: एक सन्दर्भ-ग्रन्थ है।
क्रमबद्ध कथा या आत्मकथा होने के कारण 'वसुदेवहिण्डी' कथा की विशिष्ट विधा की दृष्टि से आख्यायिका कोटि में परिगणनीय है। क्योंकि, दण्डी और विश्वनाथ ने 'आख्यायिका' एवं 'कथा' में कोई मौलिक भेद नहीं माना है। कथा की ही दूसरी संज्ञा आख्यायिका है। इसलिए, आख्यायिका कथावत् ही होती है। आख्यायिका में ही आख्यान और उपाख्यान भी सिमट आते हैं। अतएव, आख्यान या उपाख्यान भी कथा के ही समान्तर पर्याय के बोधक हैं। (शेषछाख्यानजातयः।-काव्यादर्श, १.२८) इस प्रकार, प्राक्तन काल में कथा के भाषा-माध्यम,
शैली, वर्ण्य विषय आदि में कतिपय आदर्श और मान्यताएँ रूढ़ हो गई थीं, इसीलिए प्राचीन कथा को 'रूढकथा' की संज्ञा प्राप्त हुई।
जिस प्रकार सुसंस्कृत प्राचीन कवियों द्वारा ग्रहण की गई परम्परागत मान्यताएँ या रूढ़ियाँ, 'कविसमय' या 'काव्यरूढि' के नाम से चर्चित होती हैं, उसी प्रकार कथाकारों द्वारा स्वीकृत परम्परागत वर्णन की मान्यताएँ 'कथारूढि' या 'कथानक-रूढि' के नाम से घोषित हैं । रूढ कथाओं में कथानक-रूढियों की सहज स्थिति होती है। कथानक-रूढियाँ लोककथा के अभिन्न-अनिवार्य अंग हैं और चूँकि रूढकथाएँ समग्र रूप से लोककथा या लोकाख्यान ही होती हैं, इसलिए लोककथा की सम्पूर्ण विशेषताएँ इनमें विद्यमान रहती हैं। लोकाख्यान होने के कारण ही 'कथा' में प्रेम, रोमांस और मिथक के सहज संगम की स्थिति निरन्तर बनी रहती है। इसलिए, लोकाख्यान प्रेमाख्यान के पर्याय होते हैं। और इस प्रकार, लोककथा, अपने उक्त विशिष्ट गुण-धर्म के कारण प्रेमकथा या प्रेमाख्यान.रोमांस-कथा रूढकथा. मिथक कथा आदि विभिन्न कथाविधाओं का मनोहर समाहार हुआ करती है। कहना न होगा कि 'वसुदेवहिण्डी' से न केवल प्राकृत में गद्यबद्ध कथा की रचना-परम्परा का सूत्रपात हुआ, अपितु कथा की उक्त समस्त विधाओं का एकत्र निदर्शन भी सम्भव हुआ।
संघदसगणी की 'वसुदेवहिण्डी' अभिजात कथाओं के गुणधर्म की प्रचुरता के कारण उत्तम लोकाख्यानों में मूर्धन्य है। 'वसुदेवहिण्डी' की कथा मूलत: कामकथा है, जो अन्त में धर्मकथा के रूप में परिणत होती है। प्राचीन रूढकथा होने के बावजूद इसकी अद्यतनता या चिरनवीनता इस अर्थ में है कि इसमें आधुनिक युगचेतना या युगीन बोध का प्रतिनिधित्व करनेवाले विश्वासों, प्रथा, परम्पराओं तथा सामाजिक अवधारणाओं का सम्पूर्ण विनियोग विद्यमान है, जो समाज के शिक्षित, अल्पशिक्षित और अशिक्षित जनों के बीच आज भी प्रचलित हैं। मनोरंजन, अनिश्चयता (सस्पेन्स) और रोमांस को एक साथ उपस्थित करनेवाली 'वसुदेवहिण्डी' की रूढकथा की परिधि में बौद्धिक चमत्कार, लोकानुश्रुतियाँ, पुराणगाथाएँ, अन्धविश्वास, लोकविश्वास, उत्सव, रीतियाँ, १. (क) तत् कथाख्यायिकेत्येव जातिः संज्ञाद्वयाङ्किता।-काव्यादर्श, १.२३ (ख) आख्यायिका कथावत् स्यात्। साहित्यदर्पण,६.३३४ अशास्त्रीयमलौकिकं च परम्परायातं यमर्थमपनिबध्नन्ति कवयः स कविसमयः।
-राजशेखर : 'काव्यमीमांसा', बि.रा. परिषद-संस्करण, द्वितीय), पृ.१९६