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अध्ययन:३ में, वसुदेवहिण्डी' में वर्णित पारम्परिक विद्याओं का तुलनात्मक एवं आलोचनात्मक विवेचन प्रस्तुत करने के क्रम में यथोल्लिखित चामत्कारिक विद्याओं के प्रासंगिक परिचय का विशद उपस्थापन किया गया है, साथ ही इस महत्कथा में यथाप्रतिपादित ज्योतिष-विद्या, आयुर्वेद-विद्या, धनुर्वेद-विद्या, वास्तुविद्या और ललितकलाओं का, ब्राह्मण और श्रमण-परम्परा में निर्दिष्ट शास्त्रीय सैद्धान्तिक विवेचन के परिप्रेक्ष्य में, सांगोपांग, साथ ही तुलनात्मक अनुशीलन हुआ है। .
अध्ययन : ४ में, 'वसुदेवहिण्डी' में प्रतिबिम्बित लोकजीवन का सविस्तर अनुशीलन, आलोचनात्मक एवं तुलनात्मक आसंग में, उपन्यस्त किया गया है। इस क्रम में वसुदेवहिण्डीकार आचार्य संघदासगणी द्वारा चित्रित तत्कालीन सामान्य सांस्कृतिक जीवन का व्यापक विश्लेषण हुआ है, तो उस समय की अर्थ-व्यवस्था एवं राजनयिक प्रशासन-विधि का भी, जिसमें विधि और दण्ड-व्यवस्था भी सम्मिलित है, प्रसंगोद्धरण-सहित विस्तृत मूल्यांकन उपस्थापित किया गया है । पुनः, तयुगीन भौगोलिक स्थिति एवं ऐतिहासिक परिवेश का पुंखानुपुंख अध्ययन प्रसंगोल्लेखपूर्वक हुआ है, तो तत्कालीन दार्शनिक मतवादों एवं साम्प्रदायिक दृष्टिकोणों को भी अन्तःसाक्ष्यमूलक प्रसंगों के आधार पर व्याकृत किया गया है।
अध्ययन : ५ में, 'वसुदेवहिण्डी' का भाषिक और साहित्यिक मूल्यांकन उपस्थापित किया गया है । भाषाशास्त्रीय परीक्षण के क्रम में, भाषा की संरचना-शैली का मूल प्रयोगों के उपस्थापन-सहित अध्ययन करके यह सिद्ध किया गया है कि इस कथाकृति की भाषा अर्द्धमागधी की समीपवर्ती आर्ष प्राकृत या प्राचीन जैन महाराष्ट्री है । पुनः, साहित्यिक तत्त्वों की मीमांसा सौन्दर्यशास्त्रीय दृष्टिकोण से उपन्यस्त हुई है, साथ ही आचार्य कथाकार द्वारा प्रतिपादित कथातत्त्वों के शास्त्रीय और सैद्धान्तिक विवेचन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि प्रस्तुत महत्कथाकृति भारतीय औपन्यासिक कथा-साहित्य के पार्यन्तिक और पक्तेिय आदिग्रन्थों में अपनी उल्लेखनीय विशेषता रखती है।
उपसंहार के बाद, परिशिष्ट १ में 'वसुदेवहिण्डी' में प्राप्य अन्यत्र दुर्लभ प्राकृत-शब्द-प्रयोगों का शब्दशास्त्रीय विश्लेषण तथा उनकी तुलनात्मक भाषिक मीमांसा उपन्यस्त की गई है। परिशिष्ट २ में 'वसुदेवहिण्डी' के कथानायक वसुदेव की अट्ठाईस पलियों का विवरण दिया गया है और फिर परिशिष्ट ३ में 'धम्मिल्लहिण्डी' के अन्तर्गत वर्णित धम्मिल्ल की बत्तीस पलियों की विवरणी प्रस्तुत की गई है । पुनः परिशिष्ट ४ में वसुदेवहिण्डी के विशिष्ट चार्चिक स्थलों की सूची दी गई है । ज्ञातव्य है कि इन स्थलों के, पौराणिक अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन की अपनी निजता और महत्ता है। ___ अन्त में, मैं विनम्र निवेदन करना चाहूँगा, वसुदेवहिण्डी' जैसी अद्भुत कथाकृति का यथाप्रस्तुत यह शोध-अध्ययन पार्यन्तिक नहीं है । इस महत्कथा का विषय जितना ही विस्तृत है, उतना ही अगाध
और अतलस्पर्श । इस कथाग्रन्थ पर इस प्रकार के अनेक शोधग्रन्थ प्रस्तुत किये जा सकते हैं । मेरा प्रयास आंशिक ही है, पूर्ण नहीं। इसमें अनेक आसंग ऐसे हैं, जिनकी ओर मैंने संकेतमात्र ही किया है
और जिनके लिए प्राच्य साहित्य के गवेषकों का सारस्वत श्रम प्रतीक्षित है । विशेष कर, इस कृति का भाषिक अध्ययन तो स्वतन्त्र शोधग्रन्थ का विषय है । साथ ही, सांस्कृतिक परम्परा का व्यापक प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करनेवाले इस कथाग्रन्थ का साहित्यशास्त्रीय अनुशीलन के लिए तो एक नहीं, अपितु अनेक शोधग्रन्थों के प्रणयन की अपेक्षा होगी। . विषय-विवेचन एवं प्रसंगाकलन के क्रम में कोष्ठक में दृष्टिगत होनेवाली संख्याएँ यथाप्राप्त 'वसुदेवहिण्डी' के भावनगर (गुजरात)-संस्करण की पृष्ठ पंक्ति और लम्भ के संकेत के लिए अंकित