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प्रास्ताविकी
आचार्य संघदासगणी (अनुमानतः ईसा की तृतीय- चतुर्थ शती) द्वारा प्राचीन या आर्ष प्राकृत-भाषा में निबद्ध 'वसुदेवहिण्डी' का प्राच्य कथा-साहित्य में विशिष्ट स्थान है। प्राच्यविद्या के पांक्तेय मनीषियों की अवधारणा है कि 'वसुदेवहिण्डी' गुणाढ्य की पैशाची - निबद्ध नामशेष 'बृहत्कथा' का जैन रूपान्तर है, जो ब्राह्मण- परम्परा में प्राप्त रूपान्तरों की अपेक्षा मूल 'बृहत्कथा' के अधिक निकट है । ब्राह्मण-परम्परा के रूपान्तर——बृहत्कथाश्लोकसंग्रह', 'बृहत्कथामंजरी' तथा 'कथासरित्सागर' के साथ 'वसुदेवहिण्डी' का समेकित अध्ययन करने पर मूल बृहत्कथा की रूपरेखा, यानी कथावस्तु और संरचना-शिल्पविधि कुछ और अधिक स्पष्ट होकर सामने आती है ।
भारतीय कंथा-साहित्य में दृष्टान्तों का प्रयोग - बाहुल्य उपलब्ध होता है । तत्कालीन कथाकारों ने अपनी रचना-प्रक्रिया में दृष्टान्तों को कथा - विकास के माध्यम के रूप में विनिवेशित किया है । इस दृष्टान्त-शैली का प्रयोग - प्राचुर्य' वसुदेवहिण्डी' के संरचना - शिल्प में भी भूरिशः दृष्टिगत होता है । प्राचीन कथाकारों का दृष्टान्त के प्रति आग्रह का मूल्य इसलिए अधिक है कि इससे कथा में एकरसता नहीं आती और कथा की रोचकता ततोऽधिक बढ़ जाती है । कहना न होगा कि दृष्टान्त अपने-आपमें प्रायः रोचक और प्रसादक होते हैं । 'वसुदेवहिण्डी' के अनुशीलन से यह स्पष्ट है कि इन दृष्टान्तों का आयात-निर्यात -एक परम्परा से दूसरी परम्परा में सहज रूप से हुआ है ।
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'वसुदेवहिण्डी' में कृष्णकथा, रामकथा तथा अन्यान्य पौराणिक कथाएँ प्रसंगवशात् आई हैं । संघदासगणी ने यथास्वीकृत पौराणिक कथाओं को श्रमण- परम्परा की दृष्टि से पुनर्मूल्यांकित किया है, या उनका पुनर्व्याख्यान उपस्थापित किया है । इनके अतिरिक्त जैन परम्परा की रूढ कथाएँ, जैसे सृष्टि-प्रक्रिया, वेदोत्पत्ति, गणिकोत्पत्ति, धनुर्वेदोत्पत्ति, हरिवंशोत्पत्ति, विष्णुगीतोत्पत्ति, कोटिशिलोत्पत्ति, अष्टापदतीर्थोत्पत्ति आदि भी इस कथाग्रन्थ में प्रसंगानुसार विन्यस्त हैं । इन कथाओं के समीक्षण और तुलनात्मक अध्ययन से यह तथ्य उद्भावित होता है कि ब्राह्मण और श्रमण परम्परा की पौराणिक कथाएँ बहिरंग वर्णन की विचित्रता और विषमता के बावजूद अन्तरंग दृष्टि से समस्वर हैं ।
भारतीय पारम्परिक विद्याएँ और कलाएँ 'वसुदेवहिण्डी' के रचयिताका उपजीव्य रही हैं । पात्रों एवं प्रसंगों के उपस्थापन की परिवेश-भूमि विभिन्न विद्याओं और कलाओं की चमत्कारिता से परिपूर्ण है । फलतः, इस महत्कथा में विद्याओं और कलाओं के सैद्धान्तिक विवरण के साथ ही उनके प्रयोगात्मक रूप भी बहुधा प्राप्त होते हैं । प्राचीन विद्याओं के प्रयोग - विस्तार के क्रम में ज्योतिष, आयुर्वेद, धनुर्वेद, वास्तुशास्त्र, कामशास्त्र एवं रमणीय ललितकलाओं का विपुल वर्णन उपन्यस्त हुआ है ।
'वसुदेवहिण्डी' में लोकजीवन या सामान्य सांस्कृतिक जीवन का बहुवर्णी झाँकियाँ मिलती हैं। उत्सव-त्योहार, सामाजिक संस्कार, वाणिज्य-व्यापार के निमित्त लम्बी साहसिक समुद्रयात्रा आदि के वर्णन कथासूत्र में पग-पग पर पिरोये हुए हैं। इनमें अधिकांश वर्णन रूढ या पारम्परिक हैं और 'वसुदेवहिण्डी' जैसी महत्कथा में, जिसमें वार्तापटु कथाकार बहुधा पाठकों को यथार्थ से दूर स्वप्न-जगत् मेले जाते हैं, अनेक स्थल अवश्य ही कल्पनाप्रसूत हैं। फिर भी, इतिहास और कल्पना का अद्भुत मिश्रण उपस्थित करनेवाली इस विलक्षण कथाकृति की कथाओं के आधार पर तत्कालीन श्रेष्ठतर सामाजिकसांस्कृतिक जीवन के उत्कृष्टतम मनोरम रूप का अनुमान सहज ही होता है ।