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तृतीय अध्याय
द्विसन्धान- महाकाव्य का सन्धानात्मक शिल्प-विधान
संस्कृत भाषा की सहज प्रकृति है कि उसका एक ही शब्द चाहे वह क्रिया हो या संज्ञा, विभिन्न अर्थ रखता है। इस प्रकार के शब्द संस्कृत के अनेकार्थ या नानार्थ कोशों में संग्रहीत हैं । संस्कृत की इस नानार्थक प्रवृत्ति से प्रेरित होकर ही परवर्ती संस्कृत कवियों माघ, सुबन्धु तथा बाण आदि ने चित्रकाव्य अथवा श्लेषकाव्य की सर्जना की। यहाँ तक कि दसवीं से तेरहवीं शताब्दी के मध्य काव्य का भावपक्ष गौण होता गया और भाषापक्ष मुख्य । दो, तीन, चार, पाँच, सात, बीस, चौबीस, सौ, यहाँ तक कि लक्षार्थी काव्यों की रचना की होड़ लग गयी ।
संस्कृत भाषा की नानार्थक प्रवृत्ति के दर्शन वैदिक काल में भी होते हैं । उदाहरणतया, 'इन्द्रशत्रु' – यह समस्त पद स्वरचिन्हों के माध्यम से द्वयर्थी हो जाता । अज्ञानतावश दानवों द्वारा इसका अशुद्धोच्चारण होने पर उन्हें मृत्युरूपी दुष्फल का भागी होना पड़ा । यह परम्परा जब अपनी चरमावस्था को प्राप्त हुई, तब ऐसे काव्यों की रचना होने लगी, जिनसे मस्तिष्क की पिपासा तो शान्त हुई, किन्तु हृदय तृषित ही रह गया । अब काव्य विदग्धजन द्वारा भी कोश से पठनीय होता चला गया। इस परम्परा के अन्तर्गत द्व्यर्थी, त्र्यर्थी, चतुरर्थी, सप्तार्थी आदि सभी सन्धान- काव्य परिगणित किये जाते हैं ।
सन्धान- काव्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ
संस्कृत भाषा में जहाँ पर्यायवाची शब्दों का प्राचुर्य है, वहीं नानार्थक शब्दों का अभाव भी नहीं है । संस्कृत की इस उर्वर प्रकृति के फलस्वरूप कालान्तर में सन्धान अथवा नानार्थक काव्य विधा का विकास हुआ। इस सन्दर्भ में संस्कृत
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