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(५) द्विसन्धान-महाकाव्य
सन्धान - कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना
द्विसन्धान-महाकाव्य का अपर नाम राघवपाण्डवीय भी है । यदि द्विधान नाम रचना पद्धति को व्यक्त करता है, तो दूसरा नाम राघवपाण्डवीय काव्य की विषयवस्तु का आभास देता है। इस महाकाव्य में १८ सर्ग तथा कुल ११०५ पद्य हैं। इसमें कवि द्वारा राम और कृष्ण चरितों का निर्वाह सफलतापूर्वक हुआ है । जैसी कि दिगम्बर जैन लेखकों की सामान्य प्रवृत्ति रही है, तदनुरूप इसमें राजा श्रेणिक के लिए गौतम द्वारा कथा कही गयी है । धनञ्जय ने सन्धान- काव्य में भी काव्योचित गुणों को आवश्यक माना है और कुशलतापूर्वक इस काव्य में उनका प्रयोग भी किया है । इसमें व्याकरण, राजनीतिशास्त्र, सामुद्रिकशास्त्र, लिपिशास्त्र, गणितशास्त्र एवं ज्योतिष आदि विषयों की चर्चाएं भी उपलब्ध हैं । अतएव यह शास्त्र और काव्य दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण है ।
द्विसन्धान- महाकाव्य की टीकाएं
द्विसन्धान-महाकाव्य बहुत लोकप्रसिद्ध था, इसीलिए इसकी पाण्डुलिपियाँ भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं । इन्हीं पाण्डुलिपियों से इसकी कुछ टीकाओं का भी पता चलता है, जो निम्नलिखित हैं
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(१) पदकौमुदी - यह टीका नेमिचन्द्र द्वारा लिखी गयी है । नेमिचन्द्र देवनन्दि के शिष्य तथा विनयचन्द्र के प्रशिष्य थे । ३ गुलाबचन्द्र चौधरी ने अपने “जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ६ " में नेमिचन्द्र को विनयचन्द्र का शिष्य और पद्मनन्दि का शिष्य बताया है।
(२) बद्रीनाथ कृत टीका - धनञ्जय कृत द्विसन्धान- महाकाव्य सन् १८९५ई. में निर्णयसागर प्रैस, बम्बई से काव्यमाला सिरीज़ - ४९ में बद्रीनाथ की टीका के साथ प्रकाशित हुआ था । बद्रीनाथ की टीका नेमिचन्द्र की पदकौमुदी टीका का संक्षिप्तीकरण है । अध्ययन करने पर पता चलता है कि बद्रीनाथ ने अपना ध्यान मूल की व्याख्या करने पर अधिक केन्द्रित रखा है ।
१. द्रष्टव्य - द्विस., १.९
२. द्विसन्धान - महाकाव्य, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९७० में प्रकाशित
३. द्रष्टव्य-नेमिचन्द्र शास्त्री : संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान, पृ. ३६६
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गुलाबचन्द्र चौधरी : जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ६ पृ. ५२८