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प्राक्कथन
संस्कृत साहित्य के विकास में महाकाव्य-विधा का एक महत्वपूर्ण योगदान रहता आया है । भारतीय संस्कृति और समाज चेतना के संवर्धन में जहाँ एक ओर रामायण, महाभारत जैसे विकसनशील महाकाव्यों में समूचे युग को अवतरित करने में समर्थ व्यापक कवि-दृष्टि और अद्भुत सर्जनात्मक प्रतिभा की प्रभावशाली भूमिका रही, वहाँ दूसरी ओर अश्वघोष तथा कालिदास की कला-दृष्टि ने स्वयं कविता को सविलास कर सौन्दरनन्द, रघुवंश, कुमारसम्भव जैसे अलंकृत शैली के महाकाव्यों के रचना-पथ का उद्घाटन किया । कालिदास के बाद युगीन समाज मूल्यों की अपेक्षा से संस्कृत कविता को नवीन आयाम मिले । कविता के कलेवर में ही नहीं, उसकी अन्त: प्रकृति में भी परिवर्तन आया । भारवि ने किरातार्जुनीय के प्रणयन से महाकाव्य की एक नयी पद्धति का सूत्रपात कर दूसरे ही युग का आरम्भ किया । जैन कवि धनञ्जय का द्विसंधान-महाकाव्य इसी युग की उपलब्धि है ।
सन्धान-कवि धनञ्जय कृत द्विसन्धान - महाकाव्य कृत्रिम काव्य-मूल्यों से अनुप्रेरित एक उत्कृष्ट श्लेष - काव्य माना जाता है । सातवीं-आठवीं शताब्दी के उपरान्त भारतीय काव्य- चेतना में शब्दाडम्बर, चित्रपरकता और तत्कालीन सामन्ती जनजीवन को महत्व देने की जो प्रवृतियाँ लोकप्रिय होती जा रही थीं, उन्हीं पृष्ठभूमियों से धनञ्जय कृत द्विसन्धान-महाकाव्य का कलेवर अतिरंजित है और इसमें रामकथा एवं पाण्डवकथा को एक साथ उपनिबद्ध करने का दुःसाध्य आग्रह भी फलीभूत हुआ है । भारवि ने चित्रकाव्य और शब्दक्रीडा के जो मानदण्ड उपस्थापित कर दिये थे, उसी का चरम विकास द्विसन्धान जैसे महाकाव्यों में देखा जा सकता है।
जैन संस्कृत महाकाव्यों की परम्परा में नानार्थक काव्य-शैली के अन्तर्गत द्विसन्धान-महाकाव्य सर्वप्रथम महाकाव्य है । इसका अपर नाम 'राघवपाण्डवीय' भी है । द्विसन्धान-महाकाव्य की कथा की प्रेरणा के मूल स्रोत रामायण की