________________
छन्द-योजना
२०३ प्रस्तुत पद्य में मन्दाक्रान्ता छन्द गुरु वर्णों से आरम्भ होकर राम/श्रीकृष्ण की विरहावस्था से उत्पन्न विषाद की अभिव्यक्ति कराता है, मध्य में पाँच लघु वर्गों का प्रयोग सीता या सुन्दरी को राम/श्रीकृष्ण की सेना के लंका तक पहुँचने की आशा बंधाते हुए दूत हनुमान या श्रीशैल की भावुकता को इंगित करता है तथा अन्तिम लय से मिलन रूपी परिणाम की अभिव्यक्ति सामान्य है। इस प्रकार मन्दाक्रान्ता छन्द केवल विषाद को ही नहीं, अपितु क्रोध या आश्चर्य को भी व्यक्त करता है। रसानुरूप छन्द-योजना
कवि के लिये यह आवश्यक माना गया है कि वह विषय एवं भाव की दृष्टि से छन्द-योजना का विन्यास करे । नागोजिभट्ट ने इस सम्बन्ध में व्यवस्था देते हए कहा है कि करुण रस में पुष्पिताग्रा आदि का, शृङ्गार में पृथ्वी, स्रग्धरा आदि का; वीर में शिखरिणी, मन्द्राक्रान्ता आदि का तथा हास्य में दोधक आदि का प्रयोग समीचीन रहता है । इस दृष्टि से द्विसन्धान की छन्दोयोजना का विश्लेषण किया जाए तो यह देखने में आता है कि कवि ने एक विशेष प्रकार के छन्द में किसी रस या भाव विशेष को उपनिबद्ध करने का कुशल प्रयोग किया है। उपर्युक्त नागोजिभट्ट द्वारा निर्दिष्ट छन्दों के अनुसार रसनियोजन का सिद्धान्त यद्यपि द्विसन्धान के सन्दर्भ में पूर्णतया लागू नहीं होता, तथापि इसमें करुण में वियोगिनी; शृङ्गार में पुष्पिताया, स्वागता, शालिनी तथा वीर में वंशस्थ, अनुष्टुप् आदि छन्दों की योजना निम्न प्रकार से हुई है
अपि चीरिकया द्विषोऽभवन्ननु चामीकरदाश्च्युतौजसः । कुसुमैरपि यस्य पीडना शयने शार्करमध्यशेत सः ॥२
प्रस्तुत पद्य में लघुगुर्वात्मक मिश्रित यह वियोगिनी छन्द राम या युधिष्ठिर के वनवास के उद्वेगपूर्ण दुःख की अभिव्यक्ति के माध्यम से भावनात्मक करुण रस का परिपाक कर रहा है । इसी प्रकार
१. सा.द.,हरिदासी टीका,पृ.४६२ पर उद्धृत. २. द्विस.,४३९