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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य चेतना सदापि यः स्वमिव सहायमास्तिक:
कुलोचितं सुहृदमिवानुजीविनम् ॥ यहाँ गुरु, बान्धव, सहायक, अनुजीवी-उपमेय, क्रमानुसार अधिदेवता, गुरु, स्व, सुहृद-उपमान, इव-वाचक तथा बह्वमन्यत-साधारणधर्म एवं समान वाचक होगा, अत: उपमालंकार है । दण्डी ने 'उपमा' के ३३ भेदों का वर्णन किया है, इनमें से श्लेषोपमा तथा तुल्ययोगोपमा के उदाहरण भी द्विसन्धान-महाकाव्य में द्रष्टव्य है। यथा
विश्लेषणं वेत्ति न सन्धिकार्यं स विग्रहं नैव समस्तसंस्थाम्। प्रागेव वेवेक्ति न तद्धितार्थं शब्दागमे प्राथमिकोऽभवद्वा ॥२
यहाँ पर वियोग जानता है संयोग नहीं, विग्रह करता है सकल-व्यवस्था नहीं तथा प्रारम्भ से तद् हितार्थ विचार नहीं करता- ये तीनों विशेषण कामदेव तथा अल्पज्ञ आगमिक के अर्थ में श्लिष्ट हैं, अत: यह श्लेषोपमा नामक अलंकार है।
न्यून गुण वाले पदार्थ को अधिक गुणवाले पदार्थ के साथ तुलना देकर समान-कार्यकारितया कहा जाए तो तुल्ययोगोपमा होती है। उदाहरणतया
उन्नतोऽसि विशदोऽसि हिमानीगौरवं समुपयञ्छिशिरोऽसि। हन्त ते हिमवतश्च कथं वागर्हिता दहनवृत्तिरियं स्यात् ।।५
यहाँ पर अग्नि के हीन अथवा निन्दनीय गुण दाहकत्व की हिमालय अथवा लक्ष्मण की उन्नत, निर्मल एवं स्वच्छ प्रकृति के साथ तुलना दिखाने के कारण तुल्ययोगोपमा अलंकार है। २. रूपक
रूपक सादृश्यगर्भ अभेद-प्रधान आरोपमूलक अलङ्कार है। इसी कारणवश इसमें अत्यन्त सादृश्य के कारण ही उपमेय एवं उपमान में अभेदारोप
१. द्विस.,२७ २. वही,५.१० ३. काव्या.,२:२८ ४. वही,२.४८ ५. द्विस.,१०.२६