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१. स्थान यमक
जहाँ वर्णसमुदाय की आवृत्ति एक निश्चित पाद के आदि, मध्य अथवा अन्त में अपेक्षित होती है, वहाँ 'स्थान यमक' होता है । इसे (क) आदि यमक, (ख) मध्य यमक, (ग) अन्त यमक, (घ) आदि मध्य यमक, (च) आद्यन्त यमक, (छ) मध्यान्त यमक, (ज) आदिमध्यान्त यमक तथा (झ) अन्तादिक यमक - इन आठ भेदों में विभक्त किया जा सकता है । इन सभी यमक - भेदों का द्विसन्धान - महाकाव्य में निम्न प्रकार से विन्यास हुआ है
(क) आदि यमक
व्यवधान तथा अव्यवधान से होने वाली आवृत्ति के आधार पर इसके पुनः अनेक भेद हो सकते हैं । इन भेदों के जो उदाहरण द्विसन्धान में उपलब्ध हैं, वे इस प्रकार हैं
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सन्धान- कवि धनञ्जय की काव्य चेतना
हरितो हरितो बिभ्युराभ्यो राभ्यो विनारयः ।
तेऽभ्यस्तेभ्यः स्वदेशेभ्यः केवलं केऽवलन्न वा ॥ १
यहाँ प्रत्येक पाद के आदि में 'हरितो', 'राभ्यो', 'तेभ्यः' तथा 'केवलं' वर्ण-समुदायों की व्यवधानरहित आवृत्ति हुई है, अत: अव्यपेत - आदि यमक है । भरत के अनुसार इसे सन्दष्ट यमक कहा गया है ।
इसी प्रकार भरत 'जहाँ पाद के आदि में समान अक्षरों का समावेश हो', वहाँ पादादि यमक स्वीकार करते हैं । यह उन्हीं के पादान्त यमक का विपरीत भेद है । भामह के मतानुसार इसे एकान्तर - आदि यमक कहा जा सकता है । ३ व्यवधान सहित आवृत्ति होने के कारण यह व्यपेत- आदि यमक ठहरता है I द्विसन्धान-महाकाव्य में इसका उदाहरण इस प्रकार है
प्रभावतो बाणचयस्य भोक्तरि प्रभावतोषे समरे स्थिते नृपाः । प्रभावतो हीनतया विवर्जिता प्रभावतो ही न तया रराजिरे ॥४
१. द्विस.,१८.१११
२. 'आदौ पादस्य यत्र स्यात्समावेशः समाक्षरः ।
पादादियमकं नाम तद्विज्ञेयं बुधैर्यथा ॥', ना. शा., १६.७८
द्रष्टव्य- का. भा. २.१६
३.
४. द्विस.,६.३१