________________
१५४
सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य चेतना पदघातजातदरि मुक्तधरं स .
धराधरं सुकृतवान्कृतवान्। विजहाति वा बलवता निहतः
श्लथमण्डल किल न कः पृथिवीम् ॥१ यहाँ त, थ, द, ध वर्ण एक ही दन्त्य स्थान से उच्चरित होते हैं, अत: श्रुत्यनुप्रास है। (घ) अन्त्यानुप्रास
पहले स्वर के साथ ही यदि यथावस्थ व्यञ्जन की आवृत्ति हो तो वह अन्त्यानुप्रास कहलाता है । इसका प्रयोग पद अथवा पाद आदि के अन्त में ही होता है। द्विसन्धान में प्रयुक्त पदान्तगत अन्त्यानुप्रास का उदाहरण इस प्रकार है
तत्रैव चेतोनयनेन्द्रियेषु स्थितेषु दूतेष्विव लोभितेषु ।
जातेषु चान्त: प्रकृतिक्षतेषु देहावशेषेण कथञ्चिदस्थात् ॥२
यहाँ 'इन्द्रियेषु', 'स्थितेषु', 'दूतेषु', 'लोभितेषु', 'जातेषु' तथा क्षणेषु' आदि शब्दों में 'एषु' की आवृत्ति हुई है, अत: पदान्तगत अन्त्यानुप्रास है। इसी प्रकार पादान्तगत अनुप्रास का भी द्विसन्धान में यथोचित विन्यास हुआ हैसभ्रूयुग्मं वैरविरुद्धं घटयन्नु
स्विद्यन्क्रोधक्वाथितलावण्यरसो नु। रुद्धः स्थित्वाधोरणमुख्यैर्द्विरदो नु
प्रोचे विष्णोरित्यरिरग्नि विवमन्नु । यहाँ सभी पादों के अन्त में 'नु' की आवृत्ति हुई है, अत: पादान्त गत अन्त्यानुप्रास है। (ङ) लाटानुप्रास
केवल तात्पर्य भिन्न होने पर शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होने से लाटानुप्रास होता है । इस सन्दर्भ में द्विसन्धान का निम्न पद्य द्रष्टव्य है
१. द्विस.,१२.३७ २. वही,५.१४ ३. वही,१३.२२