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रस-परिपाक
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प्रस्तुत उद्धरण में क्रोध स्थायी भाव है । लक्ष्मण अथवा भीम आलम्बन है तथा सूर्पणखा / कीचक आश्रय है । लक्ष्मण / भीम का सूर्पणखा/कीचक को प्रताड़ित करना उद्दीपन विभाव अनुवृत्त हैं । भृकुटि भङ्ग, ओंठ चबाना, आरक्त नेत्र ललकारना, स्वकृत वीर कर्म वर्णन, आक्षेप, क्रूर दृष्टि आदि अनुभाव हैं । उग्रता, आवेग, रोमाञ्च, कम्प, मद आदि व्यभिचारी भाव हैं । इनके सहयोग से यहाँ रौद्र रस आस्वादित हो रहा है ।
एक अन्य प्रसंग में कवि धनञ्जय अपने प्रायिक काव्याडम्बर में शत्रु लक्ष्मण/श्रीकृष्ण की अतिसमीपता का समाचार प्राप्त होने पर रावण / जरासन्ध के हृदय में उठते क्रोध का वर्णन करता है
ततः समीपे नवमस्य विष्णोः श्रुत्वा बलं संभ्रमदष्टमस्य । क्रुधा दशन्नोष्ठमरिं मनःस्थं गाढं जिघत्सन्निव संनिगृह्य ॥
तद्देशभीताधररागसङ्गादिवारुणाक्षस्तदुपाश्रयेण । पिङ्गयोर्भुवोरुद्गतघूमराजिर्नभ्राडिवेन्द्रायुधमध्यकेतुः ॥१
अर्थात् समुद्र पार करने के उपरान्त लंका की ओर बढ़ती हुई आठवें विष्णु अर्थात् लक्ष्मण की नूतन सेना के निकट आ पहुँचने का समाचार सुनकर रावण ने अथवा गंगा पार करने के उपरान्त राजधानी के निकट पहुँची और भय के साथ देखी गयी नौवें विष्णु अर्थात् श्रीकृष्ण की सेना का सन्देश मिलते ही जरासन्ध ने क्रोध से ओंठ चबा लिये । मानो मन में बैठे शत्रु राम अथवा कृष्ण को जोर से ओठों में बन्द करके मार डालना चाहता था । रावण/जरासन्ध के दंश के भय से ओठों की लालिमा आँखों में पहुँच गयी थी । क्रोध से जलती आँखों के निकट होने से भृकुटियाँ धूम्ररेखा के समान तन गयी थीं तथा नेत्रों की झाँकी बिना बादलों के चमकती बिजली में धूम्रकेतु के समान लगती थी । यहाँ स्थायी भाव क्रोध है । लक्ष्मण/श्रीकृष्ण आलम्बन विभाव है तथा रावण / जरासन्ध आश्रय है । लक्ष्मण / श्रीकृष्ण की सेना का समीप पहुँचना, मात्सर्य आदि उद्दीपन विभाव हैं । भृकुटि-भङ्ग, ओंठ चबाना, आरक्त नेत्र आदि अनुभाव हैं । उग्रता, आवेग, रोमाञ्च, मद आदि व्यभिचारी भाव हैं । इनके सहयोग से रौद्र रस की अभिव्यक्ति हो रही है ।
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द्विस., १६.१-२
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