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रस-परिपाक
१३९ बनी रहती है, किन्तु करुण रस में उस आशा का अभाव होता है-यही दोनों में अन्तर है।
सामान्यत: करुण रस में 'करुणा' का अनुकरण होता है । संसार में सदय सहृदयता ही 'करुणा' के नाम से प्रसिद्ध है। यह सम्मुख होने वाले रुदन आदि लिङ्गों के द्वारा अनुकर्ता में विद्यमान शोक का अनुभव करने वाले सामाजिक या प्रेक्षक में वर्तमान रहती है। इसी कारणवश इसका 'करुण रस' अभिधान सार्थक है।
धनञ्जय विरचित द्विसन्धान-महाकाव्य में अङ्गरूप से करुण रस का सफल निबन्धन हुआ है । कवि ने अपनी हृदयस्पर्शी काव्यात्मक शैली में राम/युधिष्ठिर के निर्वासन काल का वर्णन किया है
अपि चीरिकया द्विषोऽभवन्ननु चामीकरदाश्च्युतौजसः । कुसुमैरपि यस्य पीडना शयने शार्करमध्यशेत सः ।। घनसारसुगन्ध्ययाचितं हृदयज्ञैश्चषकेऽम्बु पायित: ।
स विमृग्य वनेष्वनापिवानटनीखातसमुत्थितं पपौ ॥१
प्रस्तुत प्रसंग में कवि ने राम/युधिष्ठिर के राज्यकाल तथा निर्वासन काल का तुलनात्मक वर्णन बड़े ही रोचक ढंग से किया है कि किस प्रकार वह अपने राजकीय वैभव में अतिकोमल शय्या, असंख्य परिचारकों, जो बिना कहे ही उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर देते थे, की सेवा का आनन्द उठाते थे और अब वही निर्वासन काल में मरुस्थल की रेत पर सोते हैं । यहाँ तक कि जीवन की मूलभूत आवश्यकता पेय जल की उपलब्धि न होने पर उसे जमीन खोदकर प्राप्त करते हैं । यहाँ स्थायी भाव शोक है । निर्वासन, राज्य-वैभव आदि का छूट जाना आलम्बन विभाव है। राज्यकाल के वैभवों की स्मृति, मरुस्थल के रेत पर सोना, जल आदि न मिलने पर जमीन खोदना आदि उद्दीपन विभाव हैं । विवर्णता आदि अनुभाव आक्षिप्त हैं। दैन्य, चिन्ता, आवेश, विषाद आदि व्यभिचारी भाव हैं। इनके सहयोग से 'करुण रस' की विशद अभिव्यक्ति हो रही है।
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द्विस.,४.३९-४०