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रस-परिपाक
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कामक्रीड़ा
सन्धान-कवि धनञ्जय ने अपने द्विसन्धान-महाकाव्य में सतरहवाँ सम्पूर्ण सर्ग कामक्रीड़ा वर्णन के लिये समर्पित किया है । यहाँ तक कि इस सर्ग का नामकरण भी रात्रिसम्भोग-वर्णन किया है । इस सर्ग में वर्णित शृङ्गार के कतिपय उल्लेखनीय उद्धरण इस प्रकार हैं
विलोकभावेषु सहस्रनेत्रतां चतुर्भुजत्वं परिरम्भणेऽभवत्।
समागमे सर्वगतत्वमिच्छव: सुदुर्लभेच्छाकृपणा हि कामिनः ।।१
प्रस्तुत वर्णन में कवि कामोद्वेलित प्रेमी की मन:स्थिति का चित्रण करते हुए कहता है कि कामी पुरुष स्तन, जंघा आदि उद्दीपन भावों को देखने के लिये हजारों आँखें चाहने लगे थे। आलिङ्गन करते समय दो भुजाओं से तृप्ति न होने के कारण चार भुजाएं चाहते थे और समागम के समय उद्यान, गुल्म, नदी-तीर आदि सब स्थानों पर जाना चाहते थे। इस प्रकार कामात प्रेमीजन उक्त इच्छाओं के माध्यम से मानो इन्द्रत्व, विष्णुत्व तथा सर्वव्यापकत्व-गुणों की इच्छा करने लगे थे । केवल कामी पुरुष ही नहीं, भोग-क्रिया रत स्त्रियाँ भी लज्जा को छोड़कर अपने अबला विशेषण को सबला में परिवर्तित कर रही थींप्रथममधरे कृत्वा श्लेषं व्रणं निदधे वधू
रतिविनिमय: प्रीतेनायं कुतोऽप्यनुशय्यते। स्वयमिति भयात्सत्यंकारं प्रदातुमिवोद्यता
ननु च सबला: कृत्ये नाम्ना भवन्त्यबला: स्त्रियः ।। चित्तं चित्तेनाङ्गमङ्गेन वक्रं वक्रेणांसेनांसमत्यूरुणोरुम् ।
एकं चत्रुय सर्वमात्मोपभोगे कान्ता: पङ्क्तौ हन्त लज्जां ववञ्चः ।।
प्रस्तुत प्रसंग में कवि धनञ्जय रतिकेलि का सजीव चित्रण करते हुए कहता है कि काम-क्रीडा के समय स्त्रियाँ सबला हो गयी थीं, अबला तो केवल नाममात्र के लिये ही थीं। इसीलिए प्रसन्न पतिदेव को सुरत-काल में उचित प्रतिफल देने की इच्छा से कामक्रीडा में सबला प्रेमिका ने स्वयं पति का आलिङ्गन कर उसका
१. द्विस,१७७२ २. वही,१७.६९-७०