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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना (iii) गर्भ-सन्धि
____ जहाँ बीज की प्राप्ति या अप्राप्ति हो और पुन: उनका अन्वेषण हो, उसे 'गर्भ-सन्धि' कहते हैं। द्विसन्धान-महाकाव्य के अष्टम से एकादश सर्ग तक 'गर्भ-सन्धि' है। इसमें राम द्वारा साहसगति-पराजय/पाण्डवों द्वारा जरासन्ध-पराजय के माध्यम से राघव/पाण्डव जन्म की सार्थकता का दर्शन होना 'बीज' की प्राप्ति है । सुग्रीव का लक्ष्मण को रावण से युद्ध न करने की प्रेरणा देना, दूत द्वारा श्रीकृष्ण को जरासंध के सम्मुख समर्पण करने का सुझाव दिया जाना 'बीज' की अप्राप्ति है। सुग्रीव/श्रीकृष्ण द्वारा युद्ध का निश्चय 'बीज' का पुनः अन्वेषण है । इस प्रकार अष्टम से एकादश सर्ग तक 'गर्भ-सन्धि' है। (iv) विमर्श-सन्धि
___ जहाँ किसी विलोभन अथवा क्रोध एवं व्यसन से उत्पादित बीजार्थ गर्भ से पृथक् हो जाए, उसे 'विमर्श-सन्धि' कहते हैं। कुछ आचार्य इसे 'अवमर्श-सन्धि' नाम से भी अभिहित करते हैं । द्विसन्धान-महाकाव्य के द्वादश से पञ्चदश सर्ग तक 'विमर्श-सन्धि' है । दूत रूप में हनुमान/श्रीशैल के राम/श्रीकृष्ण से समझौता करने के लिये कहने पर क्रोधाभिभूत रावण/जरासंघ की फटकार से तथा सेना के समुद्र-गंगा तट पर पहुँचने के अनन्तर नायक-नायिकाओं के जल-क्रीडा वर्णन से बीजार्थ पृथक्-सा हो जाता है, अत: द्वादश से पञ्चदश सर्ग पर्यन्त 'विमर्श-सन्धि'
(v) निर्वहण-सन्धि
क्रमश: अवस्था-चतुष्टय के द्वारा सम्पादित होने वाले उत्पत्ति, उद्घाटन, उभेदगर्भ ओर निर्भेद रूप बीज विकारों से जो युक्त हैं एवं अनेक प्रकार के सुख-दुःखात्मक हास, शोक, क्रोध, आदि भावों से जिनका उत्कर्ष हो गया है, ऐसे मुखादि चार सन्धियों के प्रारम्भादि अर्थों का जिसमें समानयन अर्थात् फल-निष्पत्ति १. 'उद्भेदस्तस्य बीजस्य प्राप्तिरप्राप्तिरेव वा।
पुनश्चान्वेषणं यत्र स गर्भ इति संज्ञितः॥' ना.शा,१९.४१ २. 'गर्भनिर्मिन्नबीजार्थो विलोभनकृतोऽथवा।
क्रोधव्यसनजो वापि स विमर्श इति स्मृतः॥' वही,१९.४२ ३. द्रष्टव्य-राजवंश सहाय 'हीरा': भारतीय साहित्यशास्त्र कोश,पृ.१३५०