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द्विसन्धान-महाकाव्य का सन्धानात्मक शिल्प-विधान तथा अष्टम को नीचे से ऊपर की ओर क्रमपूर्वक पढ़ने पर इसमें गुप्त श्लोक प्रकाशित हो जाएगा। इस बन्ध को निम्न विधि से चित्रित किया जा सकता हैयो पि ना हनु मा ना जे
ष्टो भेरि र वो गति नो रु जे ती र्थ नी त्या थो सौ स हा य क म
स्तु त उक्त पद्य को चित्रबद्ध रीति से पढ़ने पर जो पद्य आविर्भूत होता है, वह इस प्रकार है
योऽर्जुनोऽसौ स रुष्टोऽपि नाभेजे हायतीरिह।
नुरर्थकमनीवोमा नागत्यास्तु तथोतिजे॥
इस अविर्भूत पद्य का अर्थ है-'तलवार के प्रयोग से दूर जो धनुषधारी अर्जुन था, क्या उसने इस युद्ध में उज्ज्वल भविष्य की नींव नहीं डाली थी? अपितु अवश्य डाली थी। इस प्रकार के रक्षात्मक युद्ध में थोड़े अनौचित्य के कारण पुरुष की कीर्ति क्या कमनीय उद्देश्य के लिए नहीं होती है ? अपितु होती ही है'। द्विसन्धान शैली से प्रभावित काव्य
संस्कृत सन्धान-महाकाव्य शैली के आदि प्रवर्तक धनञ्जय के 'द्विसन्धानमहाकाव्य' की अनुवृत्ति पर परवर्ती काल में अनेक सन्धानात्मक महाकाव्य लिखे गये । सन्धान शैली के विभिन्न महाकाव्यों में व्यर्थक सन्धान-महाकाव्य विशेष लोकप्रिय रहे हैं । द्विसन्धान पद्धति के कुछ प्रमुख महाकाव्यों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है१. नेमिनाथचरित
इस महाकाव्य में ऋषभदेव तथा नेमिनाथ के जीवनचरित को व्यक्त किया गया है । इसकी रचना धारा-नरेश भोज के काल (१०३३ ई) में द्रोणाचार्य के शिष्य सूराचार्य ने संस्कृत में की थी।३ १. द्विस.,१८.६८ पर पदकौमुदी टीका,पृ.३६६ २. वही,१८.६९ ३. जिनरत्नकोश,पृ.२१६