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[श्रीउत्तराध्ययनसूत्र
एगन्तरत्त रुइरंसि भावे,
अतालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, ...
न लिप्पई तेण मुणी विगगो॥९१ ।। भावाणुगासाणुगए य जीवे,
चराचरे हिंसाऽऐगरूवे । चित्तहि ते परितावेइ बाले,
पीलेहि अत्तगुरू किलिडे ।। ६२ ।। भावाणुवाएण परिग्गहेण,
___उपायणे रक्खणसन्निओगे । वए प्रोग्र कहं सुहं से,
संभोगकाले य अतित्तलाभे? ॥१३॥ भावे अतित्त य परिग्गहमित्र,
सत्तोवसत्तो न उवे तुढेि । अतुट्टिदोसेण दुही परस्स,
लोभाविले आययई अदत्तं ।। ६४ ॥ तरहाभिभूयस्स अदनहारिणो,
भावे अतित्तस्स परितगहे य । मायामुसं वड्डइ, लोभदोसा,
तत्थावि दुक्खा न विमुञ्चई से।।९।। मोसस्स पच्छा य पुरत्थश्रो य, ........
पओकाले य दुही दुरन्ते। एवं अदत्तःपिा समाययन्तो
भावे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥६॥ भावाणुरत्तस्स नरस्स एवं,
कत्तो सुहं होज कहाइ किंचि? ।