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श्रीउत्तर। ध्ययन सूत्र ]
तत्थोवभोगे वि किलेस दुक्ख,
निव्वत्तई जस्स करणं क्खं ॥ ४५ ॥
एमेव सद्दम्मि गयो पओसं, उवेइ पदुचित्तोय चिणाइ कम्म
दुख्ोहपरंपराश्रो ।
जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ४६ ॥ !
सद्दे विरत्तो मणुओ विसोगो
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दुक्खोह परंपरेण |
एए न लिए भवभे वि सन्तो
जलेण वा पोक्खरिणी पलासं ॥ ४७ ॥
घाणस्स गन्धं गहणं वयन्ति,
तं दो सहे
तं रागहेउं तु मणुन माहु | अमरणुन्नमाहु, समोय जो तेसु स वीयरागो ॥ ४८ ॥ गन्धस्स घाणं गहणं वयन्ति,
घाणरस गधं गहसां वयन्ति । रागस्स हेउं समन्नम हु,
दोसस्स हेउ श्रम सुन्नमाहु ॥ ४६ ॥ गन्धे जो गिद्धिमुवेई तिब्व,
क लिये पावइ से विणासं । रागाउरे ओ महगन्धगिद्धे,
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सप्पे बिल ओ विध-निक्खमते ॥ ५० ॥ जे यावि दोसं समुवेइ ति,
सिख से उ उवे दुक्ख । दुदन्तदोंसे सपण जन्तू,
न किंचि गन्ध अवर भई से॥ ५१ ॥