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[श्रीउत्तराध्ययनसूत्र
जीवियन्तं तु सम्पत्त, मंसट्ठा भक्खियब्बए । पासित्ता से महापन्न, सारहिं इणमब्बवी ॥ १५ ।। कस्स अट्ठा इसे पाणा, एए सब्वे सुहेसिणो । वाडेहिं पंजरेहिं च, सन्निरूद्धा य अच्छहि ? ।। १६ ॥ अह सारही तो भण्इ, एए भद्दा उ पाणिणो। तुझं विवाह कजस्त्रि, भोयावे वहुँ जणं ॥ १७ ॥ सेोऊण तस्स वय, बहुपाणिविणासणं । चिन्नेइ से महापन्नो, साणुकोसे जिएहि ऊ ॥ १८ ॥ जइ मज्झ कारणा एए, हम्मन्ति सुवह जिया । न मे एथं तु निस्सेसं, परलोगे भविस्सई ।। १६ ।। सो कुण्डलाण जुयलं, सुन्तगं च महायसो । अ भरणाणि य सवाणि, सारहिस्स पणामए ।। २० ।। मणपरिणामे य कए, देवा य जहोइयं समोइराणा। सविढिीइ सपरिसा, निक्खमयां तस्स काउंजे।। २१ ।। देवमणुस्सपरिवुडो, सीय,र यवं तनो समारूढो । निक्ख मिय वारगाग्रो, रेवयस्मि ठिओ भगवं ॥ २२ ॥ उजाणं संपत्तो, ओइरा-गो उत्तनाउ सीयायो। साहस्सीइपरिवुडो, अह निक्खमइ उ चित्ताहिं ।। २३ ।। अह से सुगन्धगन्धीए, तुरियं मउग्रकुंचिए । सयमेव लुचई केसे पंचमुट्ठीहिं समाहिओ ।। २४॥ वासुदेवो य एवं भणइ, लुत्त केसं जिइन्दियं । इच्छियमणोरहं तुरियं, पावसु तं दमीसग ! ॥ २५ ।। नाणेशं दसणेणं च, चरित्तेण तहेव य । खीए मुत्तीए, वड्डमाणो भवाहि य ॥ २६ ॥
१. समोवइत्रा।