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श्रीउत्तराध्ययनसूत्र]
जो तं तिविहेण नाणुकम्पे,
मणवयकायसुसंवुडे स भिक्खू ॥ १२॥ पायामगं चेव जवोदणं च,
सीयं सोवीरजवोदगं च । नो हीलए पिण्ड नीरसं तु,
_ पन्तकुलाई परिव्वए स भिक्खू ॥ १३ ॥ सहा विविहा भवन्ति लोए,
दिवा माणुस्सगा तिरिच्छा । भीमा भयभेरवा उराला,
लोचा न विहिजइ स भिक्खू ॥ १४॥ वादं विविंह समिञ्च लोए,
सहिए खेयाणुगए य कोवियप्पा । पन्ने अभिभूय सव्वदंसी,
___ उवसन्ते अविहेडए स भिक्खू ।। १५ ॥ असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते,
जिइन्दिए सत्वओ विप्पमुक्के । अणुक्कसाई लहुअप्पभक्खी, . चिच्च। गिह एगचरे स भिक्खू ॥१६॥
॥ इअ सभिक्खुयं समत्तं ॥ १५ ॥ ।। अह बम्भचेरसमाहिठाण। णामं सोलसमं अज्झयणं
सुयं मे आउसं ! तेण भगवया एक्मक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवन्तेहिं दस बम्भचेरसमाहिठाणा पन्नत्ता; जे भिकबू सोचा निसम्म संजमबहुले संवग्बहुले समाहिबहुले गुत्ते गुनिन्दिए गुत्तबम्भयारी सया अप्पमत्त विहरेजा। .