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श्रीउत्तराध्ययन सूत्र ]
न य पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पइ । अप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे कल्लाग भासइ ॥ १२ ॥ कलहडमरवजिए, बुद्धे अभिजाइगे । हिरिमं पडिलीणे, सुविणीए ति बुच्चइ ॥ १३ ॥ वसे गुरुकुले निश्व, जोगवं उवहार्णवं । पियंकरे पितंवाई से सिक्खं लघु मरिहइ ॥ १४ ॥ जहा संखम्मि पर्य, निहिथं दुहओ वि विरायइ । एवं बहुस्सु भिक्खु, धम्मो किसी तहा सुयं ॥ १५ ॥ जहा से कम्बोया, आइरणे कन्थए सिया । आसे जत्रेण पवरे, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ १६ ॥ जहा इराणसमारूढे, सूरे दढपरकमे । उभो नन्दिघोसेणं, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ १७ ॥ जहा करेणुपरि किराणे, कुंजरे सट्टिहायणे । बलवंते अप्पडिहए, एवं हवह वहुस्सुए ॥ १८ ॥ जहा से निकलसिंगे, जायखन्धे विरायइ । वसहे जूहा हिवई, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ १९ ॥ जहा से तिक्खदाढे, उदग्गे दुप्पहंसए । सीमिया पवरे, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २० ॥ जहा से वासुदेवे, संखचक्कगयाधरे । अपहियबले जोहे, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २१ ॥ जहा से चाउरन्ते, चक्कवट्टीमहिड्दिए । चोद्दसरया हिवई, एवं हवंइ बहुस्सुए ॥ २२ ॥ जहा से सहस्तक्वे, वज्रपाणी पुरन्दरे । सक्के देवाहिवई, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २३ ॥ जहा से तिमिरविद्धसे, उच्चिन्ते दिवायरे । जलन्ते इव तेपण, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २४ ॥
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