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________________ १५० ] भगवान पार्श्वनाथ । उनका कोई प्रकट सम्पर्क विदित नहीं होता । किंतु उपरोक्त श्रीदत्त शिलालेख में स्पष्टतः इक्ष्वाकुवंशी लिखे गये हैं संभव है कि अपने प्राचीन सम्बन्धको प्रकट करनेके लिए ऐसा लिखा हो; क्योंकि यह तो हमें मालूम ही है कि मूलमें नागवंशका निकास इक्ष्वाकुवंश और काश्यपगोत्रसे ही है । अस्तु; उपरान्त करकंडु महाराजके चरित्र में दक्षिण भारतकी एक वापीमेंसे भगवान पार्श्वनाथकी प्रतिबिम्ब एक नागकुमारकी सहायता से मिलने का उल्लेख है । " दक्षिण भारत में नागराजाओं का राज्य था और खासकर उस देश में जो गंगा के मुहाने और लंकाके बीच में था यह प्रकट है।' इसी देश में दंतिपुर अथवा दंतपुरको अवस्थित बतलाया गया है । और उपरोक्त वापी इसी दंतपुर के निकटमें थी । अतएव इस कथा में जिस नागकुमारका उल्लेख है वह देव न होकर मनुष्य ही होगा। इससे भी वहां के नागवंशियोंका जैनधर्मप्रेमी होना प्रकट है । 'नागदत्त मुनिकी कथा' से भी नागवंशियोंका सम्बंध प्रगट होता है । वहां नागदत्तको उज्जयिनी के राजा नागधर्मकी प्रिया नागदत्ताका पुत्र लिखा है और कहा गया है कि वह सर्पोंके साथ क्रीड़ा करनेमें बड़ा सिद्ध हस्त था । उनके पूर्वभवके एक मित्रने गारुड़का भेष रखकर उन्हें संबोधा था और वे मुनि होगये थे ।" यहां राजा, रानी और उनके पुत्र के नाम प्रायः नाग-वाची हैं और जैसे कि हम एक पूर्व परिच्छेदमें देख आये हैं कि प्राचीनकालमें नामोल्लेखके नियमोंमें एक नियम कुल व वंश अपेक्षा प्रख्याति पाने का भी था । उसी अनुसार नागवंशी १-आ० कथा० भाग ३ पृ० २८० । २ - कर्निधम ए०जा० इन्डिया पृ० ६११। ३- पूर्व० पृ० ५९३ | ४ - आराधनाकथाकोष भाग १ पृ० १४८ ।
SR No.022598
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1928
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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