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भगवान पार्श्वनाथ |
• हुआ मिलता भी है और यह नागलोकवासी अपने आदि पुरुष' काश्यप' - बतलाते ही हैं । इस अपेक्षा यदि श्रीपार्श्वनाथजीके कुलका सम्बन्ध इन नागलोकोंसे होना संभव है परंतु इसके साथ ही जैन शास्त्रोंमें इन्हें स्पष्टतः इक्ष्वाकुवंशी लिखा है, यह भी हमें भूल न जाना चाहिये | अतः इतना तो स्पष्ट ही है कि नागवंशका सम्बन्ध अवश्य ही भगवान पार्श्वनाथजी से किसी न किसी रूपमें था । तथापि मथुराके कंकाली टीलेसे जो एक प्राचीन जैन कीर्तियां मिली हैं, उनमें कुशानसंवत् ९९ ( ईसाकी दूसरी शताब्दि ) का एक आयागपट मिला है । इस आयागपटमें एक स्तूप भी अंकित है जिसमें कई तीर्थंकरोंके साथ एक पार्श्वना स्वामी भी हैं । इनसे नीचे की ओर चार स्त्रियां खड़ी हैं, जिनमें एक नागकन्या है; क्योंकि उसके सिरपर नागफण है । कदाचित् यह उपदेश सुनने आईं हुई दिखाई गई हैं । ' इससे भी नागलोगों का मनुष्य और उनका जैनधर्मका भक्त होना स्पष्ट प्रकट है। सिंघप्रान्तके हरप्पा और मोहिनजोडेरो नामक प्राचीन स्थानों में जो खुदाई हालमें हुई है, उसमें चार-पांच हजार वर्ष ईसा पूर्वकी चीजें मिलीं हैं । इनमेंके स्तूप आदिका सम्बन्ध अवश्य ही जैन धर्मसे प्रकट होता है । इन्हींमें एक मुद्रा भी है, जिसपर एक पद्मासन मूर्तिकी उपासना नाग छत्रको धारण किये हुए दो नागलोग कर रहे हैं । (देखो प्रस्तावना) इस मुद्रासे नागवंशका जैनधर्म प्रेम भगवान पार्श्वनाथके बहुत पहलेसे प्रमाणित होता है । इसके अतिरिक्त जिस समय श्री कृष्णजीके पुत्र प्रद्युम्न कुमार विद्याधर
१ - दी जैन स्तूप एण्ड अदर एटीक्टीन ऑफ मथुग प्लेट नं. १२॥